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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

किसी भी अवसरको हाथसे जाने देना नहीं चाहूँगा। और इसलिए मैंने असहयोगियोंको यह सलाह देनेमें आगा-पीछा नहीं किया कि निष्पक्ष दलके भाइयोंके पास हमें कृतज्ञ-भावसे जाना चाहिए और यह कहकर अपनी सेवाएँ अर्पित करनी चाहिए कि जिस तरह वे उचित समझें, हमसे काम लें। यदि वाइसराय अथवा अन्य कोई परिषद् बुलाना चाहें तो उसमें जानेसे इनकार करना असहयोगियोंके लिए बेवकूफीकी बात होगी। असहयोगियोंके पक्षकी सफलता लोकमतके निर्माण और जनताके समर्थनपर अवलम्बित है। उनके लिए तो दूसरा कोई बल ही नहीं है। जनताका समर्थन खो देना कुछ नहीं तो फिलहाल ईश्वरीय वाणीसे वंचित हो जाना है।

स्वराज्यकी योजना तैयार करनेके विषयमें भी मैंने सिर्फ वही उपाय सुझाये हैं। जो मुझे बहुत ही व्यवहार्यं मालूम हुए हैं। न तो अ० भा० कांग्रेस कमेटीने और न कार्य समितिने ही उनपर विचार किया है। कांग्रेसके मताधिकारको ही आधार मान लेनेका सुझाव भी मेरा ही है। परन्तु इसमें मैंने जिस मूलभूत सिद्धान्तका आधार लिया है वह वास्तवमें ऐसा है जिसपर कोई आक्षेप नहीं किया जा सकता। स्वराज्य योजना तो वही हो सकती है जो लोक-प्रतिनिधियों द्वारा तैयार हुई हो। तब शासन-शास्त्रके उन विशेषज्ञों तथा दूसरे लोगोंके विषयमें क्या करना चाहिए, जो लोगों द्वारा निर्वाचित न हो सकें? मेरी रायमें तो वे भी उसमें शामिल हों और उन्हें मत देनेका भी अधिकार रहे। अवश्य ही वे अल्पसंख्यामें रहेंगे परन्तु निरन्तर अपने युक्ति-संगत तथ्यों और सुझावोंके द्वारा सभाको लाभ पहुँचाते हुए बहुमतपर अपना असर डालनेकी आशा तो वे कर ही सकते हैं। यदि गोलमेज परिषद् में परस्पर विश्वास और आदरसे काम लिया गया तो उसके द्वारा सन्तोषजनक और सम्मानास्पद सन्धि हुए बिना न रहेगी।

अप्रिय घटना

बड़े दुःखकी बात है कि मालवीय परिषद् में से सर शंकरन् नायर एकाएक उठकर चल दिये। मेरी समझमें उन्हें मेरे अथवा बादमें श्री जिन्ना द्वारा व्यक्त विचारोंसे कुछ लेना-देना नहीं था। विशेषतया स्पीकरकी हैसियतसे उनका किसीके विचारोंसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूपमें सहमत होना जरूरी नहीं था। मैं यह कहे बिना नहीं रह सकता कि सर शंकरन्ने अपने अध्यक्षीय कर्त्तव्यको समझने में भूल की। फिर भी प्रजातन्त्रकी प्रगतिके साथ-साथ हमें स्वतन्त्रताके ऐसे गलत उपयोगतक के लिए तैयार रहना चाहिए। उन्होंने अपनी स्वतन्त्रताका जो साहसपूर्ण उपयोग किया, मैं उसके लिए उन्हें बधाई देता हूँ; यों निजी बातचीत में मैं इसे कट्टरता कहने में नहीं हिचकिचाया हूँ। पर लोग लाचारीमें निराश होकर नहीं रह गये। उनके जाते ही बिना शोर-गुलके सर विश्वेश्वरय्या[१] स्पीकर चुन लिये गये, और सभाने पुराने स्पीकरकी सेवाओंके लिए धन्यवादका प्रस्ताव पास कर दिया। एक वर्ष पहले सर शंकरन्-जैसे मनुष्यके यह पद छोड़ देनेपर भारी खलबली मच जाती और लोग उन्हें मनाने के लिए दौड़ पड़ते।

  1. प्रख्यात इन्जीनियर; मैसूरके दीवान।