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बलिदानका फल

बलिदानका अर्थ यह है कि बलिदान करनेवाला दूसरेकी खातिर मरता है अथवा अन्य प्रकारसे दुःख भोगता है। जो अपनी खातिर दुःख भोगता है वह बलिदान नहीं करता। जो बलिदान नहीं करता वह मनुष्य नहीं कहा जा सकता। स्वार्थके लिए जीनेवाले व्यक्तिको तो शास्त्रमें चोर कहा गया है।[१] श्री राजगोपालाचारीके पत्रसे पता चलता है कि अब मोपला कैदियोंसे किसी तरह का दुर्व्यवहार नहीं किया जाता। उन्हें अब हवादार गाड़ियोंमें ले जाया जाता है और उन्हें रास्तेमें पानी आदि भी मिल जाता है। इस तरह सत्तर मोपला कैदियोंके बलिदानसे औरोंको कुछ सुख मिला है। जो मोपला कैदी मरे उन्होंने कोई मौतकी आकांक्षा नहीं की थी। वे बेचारे तो अनचाही मौतके शिकार हुए। फिर जब असंख्य भारतीय देशकी खातिर जान-बूझकर कष्ट सहन करने के लिए तैयार हो जायें और तब हिन्दुस्तान सुखी हो, इसमें आश्चर्यकी क्या बात है? जो पुरुष पवित्र हो जगत्की खातिर सर्वस्व अर्पित करता है वह तो चक्रवर्तीकी अपेक्षा कहीं अधिक सत्ता भोगता है। हे ईश्वर! क्या तू हममें से किसीको भी ऐसी पवित्रता और दुःख सहन करनेकी शक्ति नहीं देगा? हम तेरे दास बनकर रहेंगे, लेकिन हमें तो यही शक्ति चाहिए। हमें राजपाट नहीं चाहिए, हमें तो संसारके दुःखका निवारण चाहिए। जिस तरह मोपला कैदी अनिच्छासे घुटकर मर गये, उसी तरह क्या तू हमें देशकी――जगत्की――खातिर स्वेच्छासे मरनेकी शक्ति प्रदान नहीं करेगा? हम तुझसे प्रार्थना करते हैं कि तू हमें ऐसी शक्ति अवश्य प्रदान कर। हम तेरा आभार मानेंगे।

हम निस्सन्देह स्वतन्त्र हो गये हैं

पियर्सन, जो शान्तिनिकेतनमें महाकविके साथ रहते हैं, पाँच वर्ष हिन्दुस्तानसे बाहर रहने के बाद अभी-अभी वापस लौटे हैं। उन्होंने हिन्दुस्तानके लोगोंमें देशकी खातिर कष्ट सहन करनेकी शक्ति देखकर एन्ड्रयूजकी मार्फत निम्नलिखित सन्देशा भेजा है:

स्वतन्त्रताके लिए आप जो भव्य लड़ाई लड़ रहे हैं उसमें मैं आपके साथ ही हूँ। आपकी प्रवृत्तिका फल मिल चुका है क्योंकि हिन्दुस्तान स्वतन्त्र हो गया है। हिन्दुस्तानकी आत्मा अब पराधीन नहीं है। एक कविने कहा है:
“रे बन्दी! अपनी आँख उघाड़कर देख तेरी बेड़ियाँ कहाँ हैं? तेरी बेड़ियाँ कोई तेरे मनसे जुदा नहीं है। तेरा मन अगर स्वतन्त्र है तो तू अपने पाँवों को भी स्वतन्त्र समझ।”
यह बात आज हिन्दुस्तानपर लागू होती है क्योंकि हम देख सकते हैं। कि हिन्दुस्तानी आँखें खुल गई हैं और हिन्दुस्तान स्वतन्त्र हो गया है। इस सम्बन्धमें मुझे तो रंचमात्र भी शंका नहीं है। और में तो पाँच वर्षतक बाहर रहकर आया हूँ इसलिए यह बात स्पष्ट रूपसे देख सकता हूँ।
  1. भगवद्गीता, ३-१२।