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हनन करती है उस हदतक कलाका विकास नहीं होता, बल्कि पाखण्डका विकास होता है। जिस हदतक जनता दुःख सहन करती है और मरती है उसी हदतक कलाका विकास होता है। आज विश्व-युद्ध के बाद इंग्लैंड और जर्मनीका विकास नहीं हो रहा, बल्कि दोनों देशोंमें द्वेष के रूपमें विष फैला हुआ है। यह सच है कि दोनोंने दुःख सहन किया है, लेकिन उनका उद्देश्य दुःख सहन करनेकी अपेक्षा दुःख देना कहीं अधिक था। दोनोंमें से एकका भी मन शुद्ध नहीं हुआ है। फलतः वे दोनों अब फिर लड़नेकी तैयारी कर रहे हैं।

ऐसे स्वार्थपूर्ण युद्ध में पराजित पक्षके सुधरने की अधिक सम्भावना रहती है, इस लिए जर्मनी कदाचित उन्नति कर सकता है; लेकिन इंग्लैंड के लिए तो मुझे कहीं कोई आश्रय दिखाई नहीं देता। इंग्लैंडके लिए सम्भवत: एक ही आश्रय है और वह है हमारा असहयोग। यदि हमारा असहयोग सचमुच ही आत्मशुद्धिका आन्दोलन है तो भारत और इंग्लैंड दोनों ही उन्नति कर सकेंगे। जहाँ एक भी व्यक्ति तपश्चर्या करता है वहाँ वातावरण शुद्ध होता हैं। जिस तरह मैले कपड़े में क्षार देनेसे मैल कटता है उसी तरह आत्मशुद्धि भी क्षार है। असह्योगमें यह सम्भव है कि हम तो उन्नति करें और इंग्लैंडका पतन हो। हमारे असहयोगने इंग्लैंडको नम्र बनाने और पश्चात्ताप करनेका अवसर दिया है। यदि इंग्लैंड इस अवसरका उपयोग करेगा तो वह भव्य बनेगा, अगर नहीं करेगा और अगर हमारा असहयोग असहयोग नहीं हुआ तो इंग्लैंड तो पतनोन्मुख है ही, हम भी आज जितने दबे हुए हैं उससे कहीं अधिक दब जायेंगे। हम तो नपुंसक हैं। इंग्लैंडकी एड़ी तले कुचले हुए हम लोगोंको इस बातका अहसास ही नहीं है कि वस्तुतः हम लोग ही कुचले हुए हैं, इसलिए हम उन्हें कुचलनेके कार्यमें सहायता देते हैं। लेकिन जो अत्याचारी लोगोंको कुचलता है वह स्वयं भी गिरता है। जिस तरह मनुष्यका पैर कीचड़में पड़नेपर सने बिना नहीं रहता उसी तरह जो हमें दबाकर, पतित बनाकर रखता है वह भी पतित हुए बिना न रहेगा।

इसलिए मुझे विश्वास है कि यदि हमारी लड़ाईके दौरान और उसके अन्त में हिन्दुस्तान के कवि रस-समुद्रको मुक्त भावसे उलीचें तो भी वे उसे समाप्त न कर सकेंगे।

देशबन्धुको गर्जना

जिस तरह एक आदर्श कैदीका उदाहरण पंजाबमें लालाजी प्रस्तुत कर रहे हैं, उसी तरह बंगालमें देशबन्धु चित्तरंजन दास कर रहे हैं। जिस समय अदालतमें उनका मामला चला उस समय उनके खादीके पहनावे और उनकी सादगीसे आकर्षित होकर एक भी वकील खड़े हुए बिना नहीं रह सका। कुछ ही महीने पहले वे बंगालके वकीलोंके शिरोमणि थे। वकील उनके सम्मानमें कैसे खड़े न होते? वकीलोंने उन्हें बैठने के लिए कुर्सी दी। किन्तु उन्होंने कुर्सीपर बैठनेसे विनयपूर्वक यह कहकर इनकार कर दिया: “मुझे कुर्सी नहीं चाहिए।” वे सारा समय कटघरे में खड़े रहे। कुर्सी उनके सामने रखी भी गई लेकिन उन्होंने उसका उपयोग नहीं किया।

इस तरह चारों ओरसे शौर्य और सहनशीलताका ही अमृत बरस रहा है।