पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 22.pdf/२४०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय



लालाजीका पत्र

लालाजीको १८ मासकी सजा हुई और उतनी ही उनके साथी सन्तानम्को भी। अन्य दो व्यक्तियों, मलिक लालखाँ और डा० गोपीचन्दको १६-१६ मासकी सजा हुई है। लालाजीने यह सजा होनेसे पहले एक पत्र लिखा था। इसमें वे लिखते है: “हमारी चिन्ता न करें। हमारी कठिनाइयोंको ध्यान में रखकर लोककार्यको धक्का न पहुँचने दें। जब हमने यह कार्य शुरू किया है तब उसे पूरा ही कर लें। मैंने उपवास कभी शुरू ही नहीं किया और विशेष सुविधाएँ प्राप्त करनेके लिए कभी उपवास करूँगा भी नहीं। मैं तो राष्ट्रीय स्कूलोंके लिए हिन्दुस्तानका इतिहास लिखने में लगा रहता हूँ। सन्तानम् संस्कृतका अध्ययन करनेमें तल्लीन रहते हैं।” इस तरह जेलों में अब सच्चे अपराधियोंके स्थानपर निर्दोष विद्वानोंने वास करना शुरू कर दिया है। यह भारत के इतिहास में कोई साधारण बात नहीं है। भारतका आधुनिक इतिहास तो वस्तुतः अबसे ही शुरू होता है ।

काव्य-रस

एक बार मैं महाकविसे[१] जलियाँवाला बाग हत्याकांडके स्मारकके सम्बन्धमें बात कर रहा था और उन्हें उसमें रस लेनेके लिए प्रलोभित कर रहा था। उस समय उन्होंने कहा: “इसमें काव्य क्या है, मैं जिसमें रस लूँ? मुझ कविको तो जिसमें काव्य हो उसीमें रस आ सकता है। जलियाँवालामें तो अनजानमें फँसे लोगोंको गोलियोंका शिकार होना पड़ा था। ऐसी घटनासे जनतामें नवजीवनका संचार नहीं होता। जलियाँवाला तो जनताकी असहायावस्थाका परिचायक है। फिर इसका क्या स्मारक हो सकता है?” यह टीका बहुत सारगर्भित है। किन्तु मैंने उन्हें स्पष्ट रूपसे बताया कि स्मारककी स्थापनाका सुझाव कविके दृष्टिकोणको ध्यानमें रखकर नहीं दिया गया है। मैंने कहा कि यदि जनता जलियाँवाला बागको भूल जायेगी तो वह काव्य-रसकी उद्भावना ही न कर सकेगी। जब वे मेरी बातके मर्मको समझ गये तब उन्होंने बम्बईकी सभा के लिए पत्र लिखना स्वीकार कर लिया और उन्होंने वह पत्र भेजा भी। लेकिन चूँकि उन्हें सभामें काव्यका अभाव दिखाई दिया, इसलिए उनको सभामें उपस्थित होनेकी हिम्मत ही नहीं हुई।

किन्तु अब कविको काव्यका विषय मिल गया है। लालाजी जैसे सिंहको कोई जबरदस्ती जेलमें नहीं ले जा सकता। वे तो स्वतः और जान-बूझकर जेल जाते हैं। वे वहाँ जाकर अपने लिए कोई विशेष सुविधाएँ नहीं माँग रहे, अपितु असुविधाको ही सुविधा मान रहे हैं। सत्याग्रही जगह-जगहपर विवश होकर नहीं बल्कि यज्ञके निमित्त मार खा रहे हैं और अपने मालको लूटने दे रहे हैं। इतना काव्य-रस इकट्ठा हो रहा है कि उसे हिन्दुस्तान के कवि जितना चाहें उतना लूट सकते हैं।

एक अंग्रेज चित्रकार-कविने कहा है कि लोक-कलाएँ लड़ाइयोंके अन्तमें विकसित होती हैं। यह अर्ध सत्य है। जिस हृदतक एक राष्ट्रकी जनता दूसरे राष्ट्रकी जनताका

  1. रवीन्द्रनाथ ठाकुर।