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८३. टिप्पणियाँ

एक गुजरातीका पश्चात्ताप

अगर गुजरातियोंको मैं सावधान न करूँ तो कौन करेगा? मैंने सुना है कि जिस गुजरातीने दूसरेका टिकट लेकर कांग्रेस अधिवेशनमें प्रवेश करनेका प्रयत्न किया था[१] उसे अब भारी पश्चात्ताप हुआ है। इस बातसे मुझे बहुत खुशी हुई है। मुझे इस घटना से बहुत दुःख हुआ था क्योंकि मुझे सबपर विश्वास था। पश्चात्ताप करने के बाद शर्मिन्दा होनेकी तनिक भी जरूरत नहीं है। अब्बास साहबने मुझे अपने बारेमें एक बात बताई और वह भी अत्यन्त अभिमानपूर्वक। हालाँकि वे स्वयं राजाके समान वैभव सम्पन्न थे तथापि एक बार विनोदके रूपमें घड़ी भरके लिए उनका मन रेलवेकी चोरी करनेका हुआ। कुछ भी हो, चोरी तो हो ही गई। उन्होंने दूसरे दर्जेका टिकट खरीदा और अपने परिवारकी एक महिलाको पहले दर्जे के डिब्बेमें बिठा दिया। तैयब परिवार के बच्चे अब जवान हो गये हैं, इसलिए वे तीसरे दर्जे में यात्रा करनेमें सुख मानते हैं। पहले तो वे सभी पहले दर्जे में ही बैठते थे। तैयबजीको घर पहुँचनेपर शर्म महसूस हुई। उन्होंने सोचा, “मैं बदरुद्दीनका भतीजा हूँ। मैंने ऐसी चोरी की, जब संसार यह बात सुनेगा तब क्या कहेगा? और अगर संसार न भी सुने तो भी बदरुद्दीन क्या कहेंगे? मैं स्वयं अपने-आपको कैसे माफ कर सकता हूँ ?” इस तरह पश्चात्ताप करते हुए अब्बास साहब वापस स्टेशनपर गये। बाकीके पैसे चुकानेकी व्यवस्था की। उस महिलाको तार दिया कि वे दूसरे स्टेशनपर पैसे चुकाकर टिकट बदलवा लें। जितने पैसोंकी चोरी की थी उससे दूना खर्च करके उन्होंने उसी क्षण सारे स्टेशनके सामने अपने अपराधको प्रकट करके पश्चात्ताप किया और अब वे इस घटनाका वर्णन करके यह बता सकते हैं कि उनका परिवार कितना प्रतिष्ठित और सम्मानित परिवार है। इसी तरह यदि उक्त भाईको शुद्ध पश्चात्ताप हुआ हो और हुआ भी है, ऐसा मुझे सब मित्र बताते हैं, तो वे एक बड़े भारी भयसे मुक्त हो गये हैं। उन्हें लज्जित होनेका कोई कारण नहीं रहा और अब वे अत्यन्त सावधानीसे देशसेवा और आत्म-सेवा कर रहे हैं। शुद्धताके भिन्न-भिन्न माप नहीं होते। जिस तरह सभी समकोण बराबर होते हैं, शुद्धता भी उसी तरह एक समान होती है। जबतक किसी वस्तुमें तनिक भी अशुद्धता होती है तबतक उसकी गिनती शुद्ध वस्तुमें नहीं होती। इसलिए हम अपने प्रति न्याय करते समय अपने-आपको कतई माफ न करें। अपने प्रति निर्दय बनने और क्रोध करनेका हमें पूर्ण अधिकार है। और यदि हम यह कला सीख लें तो हमारे अन्तरमें विद्यमान बेचारे रागद्वेषादि दुर्गुणोंको भी कुछ मुक्ति मिलेगी और हमें उनको यह मुक्ति देनी ही चाहिए।

 
  1. देखिए “कांग्रेसका अधिवेशन और उसके बाद”, ५-१-१९२२।