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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बाघ-जैसे हिंस्र पशुओंसे नहीं डरती और उनसे डरकर नहीं भागती किन्तु वह पुरुषके व्यभिचारसे डरती है और भागती है। मैं स्त्रियोंसे तो इस बारेमें प्रयत्नशील रहनेका निवेदन कर चुका हूँ। अब में पुरुषोंसे भी निवेदन करना चाहता हूँ। क्या इस मातृजातिको निर्भय करना पुरुषका कर्त्तव्य नहीं है? क्या वह सदा यह प्रार्थना न करेगा: “हे प्रभु, यदि मैं पर-स्त्रीपर कुदृष्टि डालूँ तो उससे पहले मेरे प्राण ले लेना। जब मैं व्यभिचारके मार्गपर पग रखूँ, तू मुझे प्राण त्यागने की शक्ति देना। तू मेरे मनसे सब विकारोंको दूर करना जिससे कोई भी स्त्री मुझसे न डरे और मुझे अपना भाई मानकर अपनेको सुरक्षित समझे।” मेरी ईश्वरसे प्रार्थना है कि जबतक भारतके पुरुष स्त्री-जातिकी रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं तबतक हे प्रभु, तू हमें गुलाम ही रखना। जिस देशके पुरुष स्वयं स्त्रीकी रक्षा नहीं करते वे पुरुष, पुरुष नहीं हैं, और उनका तो गुलाम रहना ही ठीक है।

मेरी आशा

किन्तु मुझे पूरी आशा है कि भारतके स्त्री-पुरुष दोनों ही, उन्हें जिस मर्यादाका पालन करना है उसे समझ गये हैं। दोनोंने पवित्रताका स्वाद चख लिया है। वह स्वयं-सेविका निर्भय थी। मैंने एक लड़कीको एलिस ब्रिजके पास निर्भय खड़े होकर टोपियाँ बेचते देखा। इससे मेरा खून एक सेर बढ़ गया। उसे किसका भय था? वह जानती थी कि सभी पुरुष उसके भाईके समान हैं। आप भला तो जग भला। कांग्रेसके पण्डाल में आई हुई हजारों स्त्रियाँ बिलकुल निर्भय थीं। इसलिए यदि स्त्रियाँ समस्त निरापद प्रवृत्तियों में भाग न लेंगी तो उसका कारण पुरुषोंका स्वार्थ अथवा स्त्रियोंका आलस और अज्ञान ही होगा। पुरुष स्त्रीको घरके कामसे निवृत्त न होने दे अथवा स्वयं स्त्री ही अपने साज-श्रृंगारसे अथवा बतरससे मुक्ति न पा सके तो वह देश सेवा क्या करेगी?

मरनेकी तैयारी

नडियाद में अब्बास साहब गिरफ्तार नहीं किये गये, इसमें ईश्वरकी यह इच्छा हो सकती है कि जो मनुष्य पंजाबके कष्टोंको जानता है और जो उन कष्टोंका विचार करके अनेक बार रोया है उसका छुटकारा जेल जानेसे ही नहीं हो सकता। उसको तो अपने प्राण देकर ही परीक्षा में उत्तीर्ण होना है। असहयोगका प्रस्ताव सबसे पहले गुजरातियोंने ही किया था; इसलिए उनके लिए अकेली जेल कैसे काफी हो सकती है? उन्हें तो मरनेका अनुभव चाहिए। क्या अब्बास साहबको ईश्वर इसी- लिए जेल में नहीं भेजता?

सच कहें तो अब जेलका भय रहा ही कहाँ है? जेल जानेको कौन कष्ट मानता है? मुझे कैदियोंकी सम्मतियाँ मिलती रहती हैं। सभी अपने पत्रोंमें यही लिखते हैं: “हमारे कारण आप हलका समझौता न कर लें। हमें कोई जल्दी नहीं है।” जिन भयोंको हमने छोड़ दिया है उनको निमन्त्रित करनेका दिखावा करके हमें यश नहीं लेना है। हमारा छुटकारा तो इससे आगे बढ़नेसे ही होगा। बीचका रास्ता, मारपीट सहन करनेका रास्ता, पंजाबी साफ कर रहे हैं। कौन जानता है जनताने