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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बाँधकर यह निश्चय करके निकले हैं कि कोई सिपाही उनको धक्का मारे तो उसका धक्का चुपचाप खा लें।

इसका विद्यार्थियोंपर जो प्रभाव पड़ेगा वह इसका अतिरिक्त फल है। जो विद्यार्थी इतनेपर भी नहीं समझ पायेंगे वे बादमें लज्जित होंगे। उनके माँ-बाप भी विचार करेंगे। जो सरकार अदालतका हुक्म लिये बिना दिन-दहाड़े हमारे घरोंके ताले तोड़ती है उसकी शालाओं में हमारे बच्चे जा ही कैसे सकते हैं? इसका अर्थ तो यही हुआ कि वे पढ़ेंगे तो सही, किन्तु गुनेंगे नहीं। पढ़नेकी यह फीस तो बहुत कड़ी रही। हमारा सम्मान जाये और हमारे स्वाभिमानका हनन हो, इतनी बड़ी कीमत देकर कौन पढ़ेगा?

हम जो धरना देने के लिए निकले हैं वह शिष्टतापूर्वक ही। ऐसे शिष्टतापूर्ण धरनेसे कुछ-न-कुछ लाभ तो होगा ही। जो वस्तु आज या सदाके लिए त्याज्य है हम उसीके विरुद्ध धरना देते हैं। इसलिए यह धरना नोतिसंगत और उचित है। जबतक हम धरनेमें जोर-जबरदस्ती नहीं करते तबतक हमें यह अधिकार है कि हम किसी भी निन्दनीय वस्तुके विरुद्ध धरना दें। किन्तु हम ऐसी सभी वस्तुओंके विरुद्ध धरना देने के इस अधिकारका उपयोग एक साथ नहीं कर सकते। जिस वस्तुके विषयमें कोई बड़ा मतभेद होता है वहाँ धरना देना एक प्रकारकी जबरदस्ती है। कोई चीज हमें पसन्द है किन्तु दूसरेको पसन्द नहीं, ऐसी चीजके विरुद्ध कोई दूसरा मनुष्य धरना दे दे तो क्या हमें वह बुरा नहीं लगेगा? इसलिए सामान्य दृष्टिसे देखें तो धरना तो उसी वस्तुके विरुद्ध दिया जाना चाहिए जिसके विरुद्ध पूरा लोकमत बन गया हो। मैं यह तो मानता हूँ कि नडियादका लोकमत सरकारी शालाओंके विरुद्ध है। लेकिन जहाँ सरकारी शालाएँ खाली नहीं होतीं वहाँ यही मानना पड़ता है कि माँ-बाप इसके अनुकूल नहीं हैं और जहाँ माँ-बाप अनुकूल न हों वहाँ यह कैसे माना जा सकता है कि लोग असहयोग के सम्बन्ध में एकमत हैं?

शिक्षणकी जरूरत तो है ही। अक्षर-ज्ञानकी जरूरत है; किन्तु अक्षर ज्ञान ही तो सब कुछ नहीं है। वह साध्य नहीं है; वह तो साधन मात्र है। जिसमें समझ है। उसे अक्षर-ज्ञान न हो तो भी क्या हुआ? दुनिया के महान् धर्म-शिक्षक और सुधारक सभी पढ़े-लिखे न थे। पैगम्बर ईसामसीह और मुहम्मद क्या पढ़े-लिखे थे? फिर भी उन्होंने जो ज्ञान दिया है और मानव-जातिकी जो सेवा की है, महान् तत्त्ववेत्ताओं और अर्थशास्त्रियोंमें उतना ज्ञान नहीं है और उन्होंने उतनी सेवा नहीं की है एवं उनके लिए यह भविष्य में भी सम्भव नहीं है। बोअर लोगोंके राष्ट्रपति क्रूगरको, मुश्किलसे हस्ताक्षर करने लायक ही पढ़ना-लिखना आता था। अफगानिस्तानके भूतपूर्व अमीर इतने ही पढ़े-लिखे थे; किन्तु इन दोनोंकी समझ शक्ति अपार थी।

कोई यह शंका कर सकता है कि मेरी यह बात तो असाधारण पुरुषोंपर लागू होती है। यह बात ठीक है; किन्तु मैंने इससे यह बताया है कि पढ़े-लिखे बिना काम नहीं चल सकता, ऐसी बात नहीं है। दुनियामें अधिकांश लोग आज भी पढ़े- लिखे नहीं हैं, किन्तु वे मूर्ख नहीं हैं। हम उनकी शक्तिसे जीवन-निर्वाह करते हैं। उनके सामान्य ज्ञानसे ही यह संसार चल सकता है। यह सब कहने का तात्पर्य इतना