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अखबारोंकी स्वतन्त्रता

प्रकार एक बार फिर, परन्तु खुश किस्मती से आखिरी बार, अपने स्वेच्छाचारी और निरंकुश स्वरूपका परिचय दे रही है। स्वराज्य, खिलाफत तथा पंजाबके सम्बन्ध किये गये अन्यायके निवारणके लिए लड़ने का अर्थ सबसे पहले इस त्रिविध स्वतन्त्रताके लिए लड़ना ही है।

‘इंडिपेंडेंट’ अब छपकर नहीं निकलता। ‘डेमोक्रेट’ तो बन्द हो ही गया और अब तलवार लाहौरके ‘केसरी’ और ‘प्रताप’ पर उठी है। लालाजी द्वारा शुरू किये गये पत्र, ‘वन्देमातरम्’ ने तो दो हजारकी जमानत जमा करके फिलहाल वारको टाल दिया है। पहले दो पत्रोंकी एक बार दी हुई जमानत जब्त कर ली गई है और अब उन्हें १०-१० हजारकी जमानतें दाखिल करने के लिए या पत्र बन्द करनेके लिए दस दिनका नोटिस दिया गया है। मुझे आशा है कि दस-दस हजारकी जमानतें दाखिल करनेसे वे इनकार कर देंगे।

मेरा अनुमान है कि यदि जनता कोई आन्दोलन उठाकर इस रोगके कीटाणुओंको बढ़ने से न रोकेगी तो जो संयुक्त-प्रान्त और पंजाब में हो रहा है वही धीरे-धीरे और जगह भी होगा।

पहले तो पूर्वोक्त पत्रों के सम्पादकोंसे मैं यही आग्रह करूँगा कि वे ‘इंडिपेंडेंट’ की तरह अपने विचार हाथसे लिखकर ही प्रकाशित करते रहें। मुझे विश्वास है कि जिस सम्पादकके पास कुछ बातें कहने लायक हैं तथा जिसके लेखोंको लोग चावसे पढ़ते हों वह् जबतक जेलखानेके बाहर है तबतक उसका मुँह आसानीसे बन्द नहीं रखा जा सकता। और जहाँ वह जेलमें गया कि मानो उसने अपना पूरा सन्देश दे दिया। मंडाले जेलमें बन्दी लोकमान्यका मौन ‘केसरी’ के स्तम्भों में प्रकाशित उनके शब्दोंसे कहीं ज्यादा प्रभावशाली था। और जब वे छूटकर आये तब उनके भाषणों और लेखनीका प्रभाव पहलेकी अपेक्षा, जब कि वे जेल नहीं गये थे, हजार गुना बढ़ गया। उनके जेल जाने के पूर्व उनकी लेखनी और वाणीमें जो प्रभाव था उससे कई गुना उस दिन हो गया था जब वे रिहा हुए थे और अब उनकी मृत्यु हो जानेपर तो लोगोंने उनके जीवन-भर के स्वप्नको साकार करनेका जो पवित्र संकल्प किया है उसके द्वारा बिना भाषण और लेखनीके ही वे अपने पत्रका सम्पादन कर रहे हैं। आज अगर वे जीवित होते और स्वयं ही अपने मन्त्रका प्रचार करते तो भी वे इससे अधिक और कुछ नहीं कर सकते थे। मुझ जैसे आलोचक तो आज भी उनके किसी-न-किसी कथनमें दोष निकालते ही रहते। किन्तु आज सब टीकाएँ बन्द हैं और केवल उनका मन्त्र ही करोड़ों भारतीयोंके हृदयोंमें बैठकर उनपर शासन कर रहा है। इन करोड़ों लोगोंने लोकमान्य के मन्त्रको अपने जीवनमें सिद्ध करने और इस प्रकार उनका स्थायी और जीवन्त स्मारक बनानेका निश्चय कर लिया है।

इसलिए पहले तो सीसेके टाइप और यन्त्र-रूपी मूर्तिको हमें तोड़-फोड़ डालना चाहिए। हमारी कलम ही टाइप बनानेवाली फाउण्डरीका काम देगी और खुशी-खुशी नकल करके प्रतियाँ तैयार करनेवालों के हाथ छापने के यन्त्रका काम देंगे। हिन्दू धर्म मूर्तिपूजा को वहीं तक उचित मानता है जहाँतक कि वह किसी आदर्श की प्राप्ति में सहायक हो। परन्तु जब वह मूर्ति ही हमारा आदर्श बन बैठती है तब मूर्तिपूजा एक पापमय