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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तैयार न हों तो उन्हें बहुत तबाहीका सामना करना पड़ता है। यह तकलीफ हम लोग एक लम्बे अरसे से भोगते आ रहे हैं। ईश्वरको धन्यवाद है कि भारत आज सरकारके इस योजनाबद्ध उन्मादका सामना करने को तैयार है।

तथाकथित दहशत फैलानेवालों के खिलाफ तथाकथित साधारण कानून लागू करने के इस ढोंगका हमें पर्दाफाश कर देना चाहिए और विशुद्ध मार्शल लॉको आमन्त्रित करना तथा उसका स्वागत करना चाहिए। ओ‘डायरशाही [१] और डायरशाहीकी[१] चाहे हिमायत न की जा सके, पर जहाँतक आदर्शका सवाल है उनके पीछे विश्वासकी ईमानदारी है। किन्तु भारतमें आज जो कुछ हो रहा है, वह अकथनीय पाखण्ड है।

अगर यह सच है कि कुर्की के वारंटोंकी आड़ में पुलिस बनारसमें हमारे घरोंमें घुसी और वह घरके लोगोंके जेवर तक ले गई; अगर यह सच है कि बुलन्दशहर में पुलिस, व्यवस्था कायम करनेके बहाने, लोगोंको मारने-पीटने की गरजसे उनके घरोंके भीतर घुस गई; अगर यह सच है कि उसने कुर्कीके वारंट तामील करनेके लिए कैदियोंको करीब-करीब बिलकुल निर्वस्त्र कर दिया तो यह मामला बिलकुल इस लायक है कि अपनी ओरसे अहिंसा कायम रखते हुए अत्यन्त उग्र ढंगका सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू कर दिया जाये। हमें निःसहाय लोगोंपर गोली चलाई जानेके अवसरकी प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। और न हमें, सिर्फ बचावकी कार्यवाहीतक सीमित रहते हुए, लोगोंकी सहन-शक्तिपर बेजा दबाव डालना चाहिए। सरकारके कारकुनोंको हमें इस बातकी छूट नहीं देनी चाहिए कि वे हमारे घरोंको लूटते-पाटते रहें। हमें खुद आगे बढ़कर अपने सीनोंपर गोलियाँ खानी चाहिए, और वह भी जल्दीसे-जल्दी। यद्यपि ये लोग स्वयंसेवक हैं और इन्होंने कष्ट सहनेका व्रत लिया है, फिर भी हम, मुख्य कार्यकर्त्ता, शान्त और निरपराध लोगोंकी सन्तापजनक मारपीटको एक दार्शनिककी तरह तटस्थ भावसे कैसे देख सकते हैं?

एक मुसलमान नौजवानपर खादीकी टोपी पहनने या बेचने के (जो भी बात रही हो) अपराध के लिए एक यूरोपीय ‘नौजवान’ का गोली चलाना (क्या यूरोपीय नौजवान हथियार रखते हैं?) चुपचाप सहन नहीं किया जा सकता। हमें इस अन्यायका बदला, यदि आवश्यक हो तो, खुद अपने सीनोंपर गोलियाँ खाकर लेना चाहिए।

सरकार हमें हिंसा या घृणित अपमानजनक आत्मसमर्पणकी ओर धकेलना चाह रही है। पर हमें इन दोनोंमें से एक भी काम नहीं करना है। हमें इसका जवाब ऐसी सविनय अवज्ञासे देना है जिससे उन्हें गोली चलानी ही पड़े।

वे तो हमारे बीच गृह-युद्ध चाहते हैं। पर हमें उनके हाथों में नहीं खेलना है। यहाँ एक ऐसा उदाहरण है जिसे में गृह-युद्धका खुला प्रचार कह सकता हूँ। अलीगढ़ जिलेके मजिस्ट्रेटने उस जिलेके रईसोंको निम्नलिखित गश्ती चिट्ठी[२] भेजी है: