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साहसपूर्ण बयान[१] पेश किया है उसे पाठकोंके सामने उपस्थित करने के मोहको मैं नहीं रोक सकता।

मैं पिता-पुत्र दोनोंको बधाई देता हूँ। मैं पाठकोंको भी आमन्त्रित करता हूँ कि वे इसमें मेरा साथ दें। देशको दोनोंपर गर्व करना चाहिए। जहाँके युवकगण गोविन्दकी तरह साहस दिखाते हैं वहाँ युद्धका वांछित फल मिले बिना रह ही नहीं सकता।

लालाजीका पत्र

आखिरकार लाला लाजपतराय, पण्डित सन्तानम्, मलिक लालखाँ और डाक्टर गोपीचन्दके मुकदमेका फैसला सुना दिया गया। लालाजी तथा पण्डित सन्तानम् को अठारह अठारह महीने और मलिक लालखाँ और डाक्टर गोपीचन्दको सोलह-सोलह महीने की कैद की सजा दी गई है।[२] इन विशिष्ट मुलजिमोंके बहुतेरा विरोध करनेपर भी सरकारने उनके बचावके लिए एक वकील जबरदस्ती नियुक्त कर दिया था। इस तमाशे के बावजूद उनको सजा दिया जाना निश्चित था। सजाका हुक्म सुनाये जानेके जरा पहले ही लालाजीने मुझे एक पत्र[३] लिखा। उससे उनके मनका उत्साह साफ झलक रहा है। वह इस प्रकार है :

आपने जो स्नेहपूर्ण पत्र और सन्देश भेजा है उनके लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद। …मैंने भूख हड़ताल नहीं की है क्योंकि में अपने आरामके लिए शोरगुल मचानेके खिलाफ हूँ। मैं राष्ट्रीय पाठशालाओं तथा महाविद्यालयोंके लिए भारतवर्षका, हिन्दू-कालका इतिहास लिखनेमें लगा हुआ हूँ। सन्तानम् संस्कृतके तथा धार्मिक ग्रन्थोंके अध्ययन में अपने समयका बहुत अच्छा उपयोग कर रहे हैं। गोलमेज सम्मेलनका तथा अहमदाबादमें जो कुछ हुआ उसका समाचार मुझे मिल चुका था। सिद्धान्तों से सम्बन्धित निर्णय लेनेमें आप हमारी 'तकलीफों' का विचार बिलकुल न करें। आप यकीन मानिए, हम लोग अपने अभीष्टको प्राप्त करनेके लिए जबतक चाहिए तबतक और जितनी चाहिए उतनी तकलीफें बरदाश्त करनेको हर तरहसे तैयार हैं। और अब जब संघर्ष छिड़ ही गया है तो हमें अन्ततक डटे रहना चाहिए।

हमें आशा करनी चाहिए कि लालाजी और पण्डित सन्तानम्‌को उनका अध्ययन जारी रखने दिया जायेगा। मैं उन्हें तथा उनके साथियोंको यह सुझाव अवश्य देना चाहूँगा कि वे मौलाना शौकत अली और श्री राजगोपालाचारी तथा उनके साथियोंका

  1. यहाँ उद्धृत नहीं किया गया है।
  2. लाला लाजपतराय और पण्डित सन्तानम‍्को ७ जनवरी, १९२१ को सजा सुनाई गई थी।
  3. यहाँ कुछ अंश ही उद्धृत किये गये हैं।