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टिप्पणियाँ

दिया है या अंग्रेजोंकी विजय ईश्वरकी अनुकम्पाकी द्योतक है। ईश्वरके तौर-तरीके रहस्यमय हैं। वह प्रायः अपने भक्तोंकी परीक्षा पराजय द्वारा और उन्हें अनेक कष्ट पहुँचाकर लेता है। इसलिए मैं उनके अनुमानको स्वीकार करता हूँ, क्योंकि ये संघर्ष निश्चित रूपसे एक सही उद्देश्यके लिए और ऐसे साधनोंसे लड़ा जा रहा है—जो कमसे कम जाहिरा तौरपर अहिंसात्मक हैं, लेकिन बहुतसे सत्याग्रही तो निस्सन्देह अहिंसाप्रिय हैं। अहिंसामें ईश्वरपर पूरे तौरपर भरोसा करना निहित है। जिस अद्भुत साहस, पवित्रता और सत्यका परिचय दिया गया है अगर मैं इनका मिथ्या श्रेय लूं तो मेरा सिर ही फिर जाये। लेकिन हम अगर यह मानें कि ईश्वरकी प्रेरणासे आन्दोलन चल रहा है और ईश्वर मुझ जैसे साधारण व्यक्तिको अपने हाथोंमें एक उपकरणके तौरपर इस्तेमाल कर रहा है तो श्रेय किसको जाता है यह बात सहज ही समझमें आ सकती है।

मणिलाल डाक्टर

श्री बनारसीदास चतुर्वेदीने[१] इसी अंकमें श्री मणिलाल डाक्टरके[२] बारेमें ध्यान आकर्षित किया है। यह मामला इस बातका एक अद्भुत उदाहरण है कि 'महान्' ब्रिटिश साम्राज्यमें किस तरह किसी आदमीका पीछा किया जा सकता है और वह भी सिर्फ इसलिए कि वह किसी खास तरहकी राय रखता है। केवल इस आधारपर कि फीजी सरकारने उनके खिलाफ रिपोर्ट की है—हालाँकि अदालतमें उनके खिलाफ कोई बात साबित नहीं हुई—न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर और अब श्रीलंकामें उनके बसने तथा वकालत करनेपर पाबन्दी लगा दी गई है। जहाँतक जनताको मालूम है श्री मणिलालका कसूर यही है कि उन्होंने अपने देशवासियोंकी सेवा की है और उनपर उनका बहुत ज्यादा प्रभाव है। श्री मणिलालने फीजी सरकारको चुनौती दी है कि वह उनके खिलाफ लगाये गये अभियोगोंको सत्य सिद्ध करे, लेकिन सरकार इतनी कायर है कि वह ऐसा न कर सकी। और यह तो नीचताकी हद है कि उनकी आजीविकाके साधन उनसे छीन लिये जानेपर भी उन्हें गुजारेके लिए कुछ नहीं दिया जा रहा है। व्यक्तियोंका गुप्त रूपसे इस तरह सताया जाना साम्राज्यवादके बड़े दुर्गुणोंमें से है। यह साम्राज्यवादकी शक्ति नहीं है; कमजोरी है। जिस साम्राज्यमें व्यक्तिका इस तरह क्रूरतापूर्ण अपमान किया जाता है और फिर उसे अपने विरुद्ध लगाये गये

  1. (ज॰ १८९२); पत्रकार और हिन्दी लेखक। संसद सदस्य, १९२० में चीपस कालेज इन्दौरसे त्यागपत्र देकर शान्तिनिकेतनमें श्री सी॰ एफ॰ एन्ड्र्यूजके साथ काम करने लगे।
  2. गांधीजीके पुराने साथी डा॰ प्राणजीवन मेहताके दामाद; बैरिस्टर। डा॰ मणिलाल मारीशसमें कई वर्षोंतक भारतीयोंके हितमें संघर्ष करते रहे। वे १९१८ में फीजी गये थे और १९२० में सरकारने बिना मुकदमा चलाये देशनिकाला दे दिया था। कुछ दिनों बाद उन्हें न्यूजीलैंड व आस्ट्रेलियामें वकालत न करनेका हुक्म दिया गया था, सिंगापुरमें उन्हें ठहरने तक नहीं दिया गया था। जब वे न्यूजीलैंडसे लौटे तब उन्हें लंका सर्वोच्च न्यायालय में वकालत करनेकी अनुमति नहीं दी गई। लंकाके गवर्नर द्वारा उन्हें ९ जनवरी, १९२१ तक लंकासे चले जानेका आदेश मिला था।