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सम्पूर्ण गांधी वाङ्‍मय

लोभ संवरण नहीं कर सकता। मेरे लिए बड़ो दादाके पत्र तो हमेशा आशीर्वादके रूपमें होते हैं। यह मेरे लिए बड़े सन्तोषकी बात है कि इस अवस्थामें भी वे संघर्ष में इतनी सजीव रूचि रखते हैं। इस अंक में प्रकाशित उनका यह पत्र[१] आन्दोलनको आशीर्वाद देता है सो तो है ही, साथ ही उन लोगोंके लिए, जो इस संघर्षके आध्यात्मिक पहलू के कारण सच्चे दिलसे परेशान-से हैं, एक आध्यात्मिक हल भी पेश करता है। साधनों और व्यक्तियों दोनोंसे ही—वे जैसे भी हों—सुधारकका पाला पड़ा करता है और इसलिए उसे खतरा मोल लेना ही पड़ता है, सिद्धान्तहीनतासे किये गये कामोंको भी स्वीकार करना पड़ता है इसलिए हमेशा ऐसे काम करनेकी जरूरत है जो नैतिक दृष्टिसे ठीक हों। ईमानदारी नीतिके रूपमें भी वैसी ही स्वीकार्य है जैसी कि स्वयं एक गुणके रूपमें परन्तु बेईमानी, भले ही उसका उद्देश्य कितना ही महान् हो, स्वीकार नहीं की जानी चाहिए। अगर उद्देश्य अच्छा है तो उससे कामकी महत्ता भी बढ़ती है। और अच्छा काम बुरे उद्देश्यसे किये जानेपर भी अच्छे कामकी महत्ता सर्वथा खत्म नहीं हो जाती। कमसे कम दुनियाके लिए तो वह काम अच्छा रहेगा ही। नुकसान उसके करनेवाले को ही उठाना पड़ता है क्योंकि उसका उद्देश्य बुरा होनेपर उसे अपने ही कामके यशका पूरा हिस्सा नहीं मिलता। अतएव अहिंसामें हमें इस बातकी जरूरत है कि हम हिंसाके काम करके उन्हें ढकने के लिए अहिंसाका बहाना न बनायें।

"एक अंग्रेज ईसाई धर्म-प्रचारिका" अपने धर्म प्रचारके क्षेत्रमें बहुत प्रसिद्ध हैं। उन्होंने अपना नाम और पता भेजनेकी कृपा की है। लेखिकाके स्वभावकी निष्कपटता और उनकी स्वीकारोक्ति भारतमें अंग्रेज निवासियोंको सुलहका मार्गदर्शन कराती है।[२] मुझे इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि अगर असहयोग आन्दोलनमें भाग लेनेवाले लोग अहिंसाके व्रतपर अन्ततक अडिग रहें, भले ही उन्हें कितना ही उकसाया-भड़काया जाये, तो भारतमें रहनेवाला प्रत्येक अंग्रेज नर-नारी पूर्ण रूपसे राष्ट्रवादी बन जायेगा। अंग्रेजों के हाथों हमारा जो अपमान हो रहा है यदि हम स्वयं उसमें हाथ न बँटायें, उससे असहयोग करें तो अन्ततोगत्वा हमारे साथ उनका मैत्रीभाव हो जायेगा। जो घटनाएँ घट रही हैं उनसे साफ मालूम होता है कि वर्तमान अवस्था कितनी असह्य है।

लेकिन महिलाके तथा दूसरे सज्जन, दोनों के ही पत्रोंकी खूबी यह है कि वे यह मानते हैं कि इस आन्दोलनमें ईश्वरका हाथ है। मुझे इस बातका अहसास है और इस अहसाससे पीड़ा भी पहुँच रही है कि पिछली लड़ाईमें अंग्रेज और जर्मन दोनों ही इस बातका दावा करते थे कि ईश्वर उनके साथ है। मैं यह नहीं कह सकता कि जर्मनीकी हार एक ऐसी परीक्षा है जिसमें ईश्वरने उन्हें अपनी कृपासे वंचित कर

  1. यहाँ उद्धृत नहीं किया गया।
  2. यह पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। इसमें उन्होंने गांधीजीकी प्रशंसा की थी और आन्दोलनके प्रति सहानुभूति व्यक्त करते हुए अपनी जातिवालोंमें से बहुतोंकी अक्षम्य मूर्खता और भ्रांतिपर खेद प्रकट किया था।