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टिप्पणियाँ
मैं एक और चीज भी जोड़ना चाहता हूँ जिसका रूप अधिक सार्वजनिक है। इसको कांग्रेस अधिवेशन में सार्वजनिक रूपसे कहने न कहने की बात आपपर छोड़ता हूँ…वह यह है :
आपके कामको सफलता मिली है, और इसलिए भारतको स्वतन्त्र हुआ ही मानिए…
यद्यपि यह निश्चित है कि आपको बिना शर्तके पूर्ण स्वराज्य मिले बिना नहीं रहेगा; फिर भी मैं समाज-सुधारका कुछ व्यावहारिक और रचनात्मक कार्यक्रम अपनाये जानेपर जोर दूँगा…
मुझे यकीन है कि आयरलैंडका कृषि संगठन एक ऐसी संस्था है जिसके नमूनेपर भारतकी स्वतन्त्रताकी इमारत खड़ी की जा सकती है। भारतको भी ऐसे किसी आधारकी जरूरत पड़ेगी जिसपर वह एक स्वतन्त्र और आत्मनिर्भर राज्यकी तरह खड़ा हो सके और इसके लिए आवश्यक है कि व्यावहारिक स्वराज्यका कोई कार्यक्रम अविलम्ब तैयार किया जाये।

मैं पियर्सन के इस विचारसे सहमत हूँ कि भारत पहलेसे ही स्वतन्त्र हुआ बैठा है। भारत तभी स्वतन्त्र हो गया था जब लालाजी, पण्डित नेहरू, चित्तरंजन दास और मौलाना अबुल कलाम आजाद गिरफ्तार किये गये। वह तभी आजाद हो गया था ज्यों ही यह स्पष्ट हो गया कि दमन निष्फल साबित हुआ है और लोग, भले ही उनपर हमला किया जाये या उनपर कोड़ोंकी वर्षा हो, सभाएँ करनेसे नहीं डरेंगे। हमें आजादी तभी मिल गई थी जब हम इसकी कीमत चुकाने के लिए तैयार हो गये। शासकों और हमारे बीच जो मतभेद है उसे मिटाने में समय लगेगा। हम तबतक स्वतन्त्र नहीं कहला सकते जबतक कि हमें 'आजाद होने के प्रमाणपत्र' की आवश्यकता बनी रहती है। वह आदमी जिसे अपनी तन्दुरुस्ती सिद्ध करने के लिए तन्दुरुस्तीका प्रमाणपत्र पेश करने की जरूरत पड़े, तन्दुरुस्त नहीं माना जा सकता? कांग्रेस पण्डाल में दाखिल होनेवाले प्रत्येक स्त्री और पुरुषको खुद अपने व्यक्तित्वमें ही आजादीका आभास मिला होगा।

श्री पियर्सनने भारतीय वायुमण्डलमें आजादीकी बिजलीका चमकना तो देख लिया, पर वे आन्दोलनका रचनात्मक पहलू देखना चूक गये। स्वतन्त्रताकी भावना तो सर्वत्र व्याप्त हो गई है। रचनात्मक कार्य आन्दोलनको स्थायित्व प्रदान करता है परन्तु उसकी प्रक्रिया दिखाई नहीं पड़ती। उसका अनुभव तभी हो सकता है जब उस कामको देखा जाये जो हजारों घरोंमें चुपचाप किन्तु निश्चित रूपसे किया जा रहा है। वे उसे स्वदेशीमें और चरखेमें देख सकते हैं। जिस हदतक हाथकी कताई संगठित होगी उसी हदतक भारत स्थायी रूपसे सुसंगठित होगा। इस समय भारतमें तत्काल कृषिका संगठन होना असम्भव है क्योंकि यहाँ भारतकी संयुक्त परिवार प्रणाली, जिसका प्रभाव मुसलमानोंपर भी है तथा भारतकी दूसरी विशेष बातें इस कार्यको असम्भव बना देती हैं। लोगोंके छोटे-छोटे खेत, बँटवारेके कारण और भी छोटे होते जा रहे हैं। इसलिए केवल खेतीबारी देशकी गरीबी दूर करनेके लिए एक कमजोर साधन