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सम्पूर्ण गांधी वाङ्‍मय

स्वेच्छा में परिवर्तित करें। जब हम लोगों में कष्ट सहनेकी 'स्वेच्छा' पैदा हो जायेगी तो समझिए कि संसार के सारे राष्ट्र मिलकर भी हमारा कुछ न बिगाड़ सकेंगे। कुछ भी हो, भारतने यही मार्ग चुना है और ज्यों ही यह बात निश्चित रूपसे सिद्ध हो जायेगी कि कष्ट सहनेकी क्षमता हमारे लिए मामूली बात है तो समझिए कि हम पूर्णतः स्वतन्त्र हो गये। हमारी अवस्था तब ऐसी हो चुकेगी कि हम समझौतों और सम्मेलनोंमें बिना किसी प्रकारकी आशंका और पूर्णतः स्थिरचित्त होकर भाग ले सकेंगे।

मोपला कैदियों के साथ किये जानेवाले सभ्यतापूर्ण व्यवहारका जो उल्लेख राजगोपालाचारीने किया है उसमें हमारे लिए एक शिक्षा निहित है। हममें से बहुतसे लोगोंको अपनी लम्बी राजनीतिक दासताकी घुटनसे मुक्त होने के पहले ही शरीर त्यागना पड़ेगा। यह राजनीतिक घुटन मोपला लोगोंकी यातनासे भी अधिक कष्टकर है, यद्यपि मोपला लोगोंको जो यातनाएँ भुगतनी पड़ी हैं, उसने हमारे मानवीय दयाभावको बहुत ठेस पहुँचाई है। जो मोपले मौतकी उस गाड़ीमें मरे, यदि वे लोग निरपराध थे, उनमें बहुतसे निश्चय ही निरपराध होंगे, तो वे ईश्वरके सामने पौरुषहीनताके अपराधी नहीं ठहरेंगे। हमारे साथ ऐसी बात नहीं है। हम लोग जान-बूझकर अपनी कमजोरीके कारण राजनीतिक अपमान सह रहे हैं। मेरा विश्वास है कि नरम दलके जो लोग राजगोपालाचारी के पत्र पढ़ेंगे, वे उनके सद्भावसे किये गये कटाक्षोंका बुरा न मानेंगे। ये पत्र प्रकाशित किये जानेके लिए नहीं थे। ये पत्र स्वभावतः उन्मुक्त भावसे लिखे गये थे। इन पत्रोंमें कोई दुराव-छिपाव नहीं रखा गया। प्रकाशनके लिए जोकुछ लिखा जाता है उसमें तो इस बातका ध्यान रखा जाता है। लेकिन मैं आशा करता हूँ कि वे लोग राजगोपालाचारीको गलत भी नहीं समझेंगे। इस तथ्यसे इनकार नहीं किया जा सकता कि आजकल सहयोग करनेवाले नरमदलीय लोगों और असहयोगी उग्रतावादियों में प्रकृतिगत अन्तर है। उग्र दलवाले लोग नरम दलके लोगोंपर कायरताका दोषारोपण करते हैं। वे उनकी देशभक्तिपर सन्देह नहीं करते। दोनों ही देशके हितचिन्तक और सेवक हैं। नरम दलके लोगोंको इस बातकी छूट है कि वे उग्र दलके लोगों के बारेमें यह धारणा बनायें कि वे जल्दबाज हैं, और भविष्यके बारेमें कुछ नहीं सोचते। हमें इस प्रकारकी निष्कपट आलोचना बिना क्रुद्ध या सन्तप्त हुए बरदाश्त करनी चाहिए।

पहले ही स्वतन्त्र

'यंग इंडिय'के पाठक श्री डब्ल्यू॰ डब्ल्यू॰ पियर्सनके[१] नामसे अपरिचित नहीं हैं। शान्तिनिकेतनमें श्री रवीन्द्रनाथके कार्यकलापसे कई वर्षोंतक उनका सम्बन्ध रहा है। उन्हें भारतमें राष्ट्रीय विचारोंको पोषण देनेवाली एक पुस्तक लिखनेके कारण देश निकाला दिया गया था। हाल ही में उन्हें शान्तिनिकेतन लौटनेकी इजाजत मिली है। वहाँ उन्होंने कांग्रेस सप्ताह के दौरान श्री एन्ड्रयूज द्वारा निम्नलिखित सन्देश भिजवाया है। व्यक्तिगत बातें लिखने के बाद उन्होंने लिखा :[२]

  1. ईसाई धर्म प्रचारक तथा भारतके सक्रिय सहायक।
  2. यहाँ उस पत्रके कुछ अंश ही दिये जा रहे हैं।