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खूब किया, लेकिन क्या यह जारी रहेगा?

उसका कुछ प्रयोजन ही नहीं रह जायेगा। दूसरेका टिकट लेकर कांग्रेस में आनेकी क्या जरूरत थी? वहाँ देखने योग्य क्या था?

मेरे कानोंमें यह बात आई है कि ये शर्तें कठिन हैं। ऐसा होते हुए भी इनमें से एक भी बात नई नहीं है।

जो बात हमने नागपुरमें और कलकत्तामें निश्चित की, प्रस्तावके रूपमें स्वीकृत की और जो हजारों सभाओंमें दुहराई वही बात प्रतिज्ञामें दी गई है। अब जब कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपना निश्चय प्रकट करनेका समय आया है तब क्या हम भड़क उठेंगे? क्या इतने दिनोंतक हम यह कहकर दम्भ ही करते थे कि हमें मैत्रीसे, अस्पृश्यता के मैलको दूर करके तथा आत्मत्याग करके स्वराज्य प्राप्त करना है; अथवा हम यह मानते थे कि ये शर्तें दूसरोंके पालन करनेके लिए हैं, हमारे पालन करने के लिए नहीं हैं?

मुझे उम्मीद है कि एक भी समझदार गुजराती स्त्री या पुरुष इस धर्म-यज्ञमें अपना नाम दर्ज कराये बिना न रहेगा। बारडोली अथवा आनन्द तैयार न हुए हों तो भले ही न हों। तैयार हुए बिना रह ही नहीं सकेंगे। लेकिन व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा तो हम आज ही कर सकते हैं। ऐसे व्यक्ति तो हर गाँव और हर शहरमें मिलने चाहिए। ऐसे व्यक्तियोंको अब जेलें भरनी ही चाहिए।

मेरी अपनी इच्छा तो यह है कि जबतक गुजराती जेल न जायें तबतक न तो कोई समझौता हो और न कोई असहयोगी कैदी ही छूटे। लेकिन ऐसी निर्दय उम्मीदके साथ-साथ मेरी यह मान्यता भी है कि स्वेच्छया जेल जानेवाले कैदी कार्य सिद्ध हुए बिना छूटनेकी कामना ही नहीं करेंगे और कार्य-सिद्धिके लिए अभी हमें काफी दुःख उठाना है। इस दुःखको अगर गुजरात नहीं उठायेगा तो और कौन उठायेगा? कमसे-कम दुःख उठानेका रास्ता एक ही है और वह यह कि अच्छेसे-अच्छे लोग अधिकसे-अधिक दुःख उठायें। इसलिए गुजरात के सभी स्त्री-पुरुषोंसे मेरी विनती है कि वे स्वयंसेवक बनने के लिए जो प्रतिज्ञा करनी पड़ती है उसे समझें और उसपर हस्ताक्षर करें एवं उनके सम्मुख हस्ताक्षर करके जेल जानेके जो अनेक शुद्ध अवसर खुले हैं उनका उपयोग करें।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ८-१-१९२२