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स्वतन्त्रताकी पुकार

रहना धार्मिक दृष्टिसे नाजायज होगा। क्योंकि वह हमारी प्रतिहिंसा और झल्लाहटका सूचक होगा। ऐसा करना खुदाको न मानना होगा; क्योंकि उस अवस्थामें उनसे किनाराकशी करनेका आधार इस धारणापर होगा कि अंग्रेज लोग मनुष्यके देव-भावको पहचानने और उसे अपनानेकी क्षमता नहीं रखते। ऐसी स्थितिको न तो श्रद्धावान् हिन्दू और न श्रद्धावान् मुसलमान ही कबूल कर सकता है।

भारतका सबसे बड़ा गौरव इस बात में नहीं है कि वह अंग्रेज भाइयोंको अपने खूनका प्यासा दुश्मन माने, जिन्हें मौका मिलते ही हमें हिन्दुस्तानसे निकाल बाहर करना है; बल्कि इस बातमें है कि उस साम्राज्यकी जगह—जिसकी भित्ति पृथ्वीके कमजोर और अनुन्नत राष्ट्रों तथा जातियोंकी आर्थिक लूटपर, और इसलिए आखिरकार पशुबलपर आधारित है—एक ऐसे राष्ट्रमण्डलका निर्माण करनेमें है जिसमें वे और हम मित्र और हिस्सेदारकी हैसियतसे रहें।

जरा हम इस बातपर विचार करें कि ऐसे स्वराज्यका जिसमें अंग्रेजोंके साथ सम्बन्ध रहे, अर्थ क्या है? इसका निःसन्देह यही अर्थ है कि भारत यदि चाहे तो स्वतन्त्रताकी घोषणा कर सके। अतएव स्वराज्य कोई ब्रिटिश पार्लियामेंटसे मिलनेवाला मुफ्तका दान नहीं होगा। वह भारतकी पूर्ण आत्माभिव्यक्तिकी घोषणा ही होगी। हाँ, यह सच है कि वह पार्लियामेंट के एक कानून द्वारा ही घोषित किया जायेगा। लेकिन वह तो भारतीय प्रजाके प्रकाशित मतकी शिष्ट स्वीकृति मात्र होगी। दक्षिण आफ्रिकाकी यूनियन के विषयमें भी ऐसा ही हुआ था। हाउस ऑफ कॉमन्स द्वारा यूनियनकी योजनाका एक अक्षर इधरसे उधर न हो सका। हमारे मतकी स्वीकृति तो सन्धिके रूपमें होगी और ब्रिटेन सन्धिमें सम्मिलित दो पक्षोंमें से एक होगा।

ऐसा स्वराज्य चाहे इस वर्ष न आये, हमारी इस पीढ़ीमें भी न आये। लेकिन मैंने इससे कमका विचार नहीं किया है। जब कभी निपटारा होगा तब ब्रिटिश पार्लियामेंट नौकरशाही द्वारा व्यक्त भारतीय प्रजाके मतको नहीं बल्कि भारतके स्वतन्त्रतापूर्वक चुने गये प्रतिनिधियों द्वारा व्यक्त मतको स्वीकार करेगी।

कोई राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्रको बतौर दानके स्वराज्य नहीं दे सकता। यह तो ऐसी निधि है जो देशके अच्छे-अच्छे पुरुषोंके रक्तसे ही खरीदी जा सकती है। और जब हम उसकी बहुत बड़ी कीमत दे चुकें तब वह हमारे लिए दान-रूप न रहेगी। वाइसरायने यह कहा है कि स्वराज्य यदि तलवारके द्वारा नहीं मिला तो पार्लियामेंट के द्वारा ही मिल सकता है। यहाँ वे गड़बड़ा गये हैं। ऐसा कहकर श्रोताओंको यह अनुमान करनेका मौका देना कि इंग्लैंडमें कष्टसहनके नैतिक दबावको माननेकी क्षमता नहीं है, उन्होंने अपने देशकी बड़ाई नहीं की है और यदि उन्होंने उपस्थित जनोंको यह समझाना चाहा हो कि ब्रिटिश पार्लियामेंट तो जब उसकी इच्छा होगी तभी स्वराज्य देगी, उसे हिन्दुस्तानकी उच्चाकांक्षा और अभिलाषासे कोई गरज नहीं, तो उन्होंने श्रोताओंकी बुद्धिमत्ताका अपमान किया है। सच बात तो यह है कि स्वराज्य लगातार परिश्रम और कल्पनातीत कष्टसहनके बलपर ही प्राप्त होगा।

परन्तु वाइसरायको यह पता नहीं है कि तलवारकी स्थानपूर्ति के लिए कोई दूसरा साधन भी है और इसलिए शायद वे यह खयाल करते हैं कि धारा सभाओं में