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सम्पूर्ण गांधी वाङ्‍मय

सकती, वह जीवित रहने योग्य नहीं है। जो संस्था अपने ही जिलेकी सहायतासे चलती है वही उस जिलेके लिए आवश्यक हो सकती है। पादरियोंकी कई बड़ी-बड़ी संस्थाएँ हैं। उनको इंग्लैंड या अमेरिकासे रुपया मिलता है। पर हैं वे लोगोंपर भार रूप ही। जनताका तन-मन उनके साथ नहीं है। यदि पादरी लोग आरम्भसे ही लोगोंकी सद्भावना और सहायताको अपना आधार बनाते तो उन्होंने आज भारतकी अपरिमित सेवा की होती। इसी प्रकार यदि कांग्रेस कमेटियों तथा कांग्रेससे सम्बन्ध रखनेवाली दूसरी संस्थाओंको उसके केन्द्रीय मंडलकी ओरसे सहायता मिलने लगे तो बहुत सम्भव है कि वे उन चीजोंकी तरह हो जायें जो बाहरसे लाकर कहीं लगाई जाती हैं और उनसे शायद ही जनताका हित हो। अतएव यह एक सामान्य नियम बनाया जा सकता है कि जिस संस्थाको स्थानीय लोगोंकी ओरसे सहायता नहीं मिलती उसे जीवित न रहना चाहिए। आत्मावलम्बन स्व-शासनकी क्षमताकी अचूक कसौटी है। हाँ, यह हो सकता है कि ऐसे स्थान और प्रान्त अभी होंगे जिन्हें अपनी स्थितिका ज्ञान न हुआ हो। आरम्भिक अवस्थामें उन्हें उनके विकासमें सहायता देनेकी आवश्यकता होगी। सरकार के साथ संग्रामकी जो भी योजना हम बनायें उसमें उनकी गिनती नहीं की जा सकती। वायुवेगसे चलनेवाले इस युद्धमें हमें केवल उन्हीं स्थानोंपर भरोसा रखना होगा जिनके राजनैतिक चैतन्यका विकास हो चुका हो। अतएव केन्द्रीय मंडलसे स्थानीय संस्थाओंको बहुत ही कम आर्थिक सहायताकी आशा रखनी चाहिए।

छुआछूत

इसी तरह हमको छुआछूत के विषयमें भी भगीरथ प्रयत्न करना चाहिए। जबतक कि खुद अछूत लोग ही हिन्दू धर्म के इस सुधारकी तसदीक न करें तबतक क्या हम उनके लिए कुछ करनेका दावा कर सकते हैं? इस विषय में मुझे आन्ध्र जैसे अत्यन्त प्रगतिशील और खूब जाग्रत प्रान्तमें भी गलतफहमी पाकर निराशा हुई। छुआ-छूतको दूर करनेका अर्थ है पंचम जातिकी समाप्ति। अतएव यदि कोई पंचम जातिका लड़का किसी सार्वजनिक कुऍसे पानी खींचे या सार्वजनिक मदरसेमें पढ़े तो लोगोंको उसपर कोई आपत्ति न होनी चाहिए। एक अब्राह्मण जितने काम कर सकता है उतने सब काम करनेका अधिकार उसे होना चाहिए। धर्मके नामपर हम हिन्दुओंने बाहरी बातोंका खूब आडम्बर रच रखा है और धर्मको केवल खानपानका विषय बनाकर उसकी प्रतिष्ठा कम कर दी है। ब्राह्मणत्वको जो अद्वितीय स्थान प्राप्त हुआ है उसका कारण है ज्ञानसे प्रदीप्त निःस्पृहता, अन्तःकरणकी शुद्धि और घोर तपस्या। हिन्दू लोग यदि खान-पान और छूतछात के आध्यात्मिक प्रभावको अनुचित महत्त्व देंगे तो इसका कुफल उन्हें मिले बिना नहीं रह सकता। हमें आन्तरिक पवित्रताका अधिक विचार करना चाहिए; हम अनेक आन्तरिक प्रलोभनोंसे घिरे हुए हैं; घोरसे-घोर अस्पृश्य और पापपूर्ण विचारोंका प्रवाह हमें स्पर्श कर रहा है और अपवित्र बना रहा है। ऐसी दशामें हम अपनी पवित्रताके घमण्डमें मस्त होकर अपने उन भाइयोंके स्पर्शके प्रभावको तिलका ताड़ न बनायें, जिन्हें हम अज्ञानवश और उससे भी अधिक अपने बड़प्पनकी ठसकमें अपनेसे नीचा समझते हैं। उस सर्वशक्तिमान् परमात्माके दरबारमें