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कांग्रेसका अधिवेशन और उसके बाद

बातोंको भूल जाना तथा सतर्कतामें गफलत करना ठीक नहीं है। इस आन्दोलनकी सफलता हमारे नैतिक बलके विकासपर ही निर्भर है। जिस प्रकार संगीतमें एक सुरके बिगड़ जानेसे सारा मजा किरकिरा हो जाता है उसी प्रकार हमारे इस महान् आन्दोलनको नष्ट-भ्रष्ट करनेके लिए एक ही आदमी काफी है। हमें याद रखना चाहिए कि हमारी सब बातोंका आधार सत्य और अहिंसा है। दूसरे लोग जिन्होंने ऐसी प्रतिज्ञा नहीं की है चाहे जो करें; पर यदि हम विचारपूर्वक की गई अपनी ही प्रतिज्ञाओंको तोड़ने लगें तो इससे सर्वनाश हुए बिना न रहेगा। इसलिए जैसा कि मैंने अक्सर इन पृष्ठोंमें लिखा है, कांग्रेस के विधानके अनुसार कामिल तौरपर काम करनेसे ही स्वराज्य की स्थापना अपने-आप हो जायेगी। देखें, क्या होता है?

कांग्रेसका कोष

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीके पास अभी एक अच्छी रकम शेष है; परन्तु प्रान्तीय कमेटियाँ अवश्य ही अपने पासका सव रुपया खर्च चुकी होंगी। उनके पास आमदनीका एक ऐसा साधन है जिसके लिए उन्हें विशेष प्रयत्न करनेकी जरूरत ही नहीं रहती। कांग्रेसके हर एक सदस्यको चार आने प्रतिवर्ष चन्दा देना आवश्यक है। तभी उसका मत देनेका अधिकार कायम रह सकता है। अतएव यदि प्रत्येक प्रान्तमें यथेष्ट सदस्य हों और सदस्यतापत्र भरनेवाले सदस्योंकी संख्या कमसे कम दो लाख मानें तो उसके पास पचास हजार रुपये जमा हो सकते हैं। मुझसे कहा गया है कि यह तो केवल मृगतृष्णा है; क्योंकि इतने रुपये वसूल करनेमें मूलसे भी अधिक खर्च हो जाता है। जो सरकार अपनी आयसे अधिक खर्च करती है वह स्वेच्छाचारिणी या भ्रष्ट सरकार होती है। कांग्रेसके लिए तो यह दावा किया जाता है कि उसका संचालन स्वेच्छापूर्वक होता है। और यदि हम नाम मात्र के खर्चपर चन्दा वसूल नहीं कर सकते तो हमें जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं। स्वराज्य हो जानेपर हम ऐसी उम्मीद करते हैं कि अपनी आय वसूल करनेमें सरकारको २३ प्रतिशत से अधिक खर्च नहीं आयेगा और यह सारी वसूली बल-प्रयोगसे नहीं, बल्कि लोगोंकी स्वेच्छासे होगी। अतएव प्रत्येक प्रान्त से हमें कमसे कम इतनी आशा करनी चाहिए कि वह अब अपने खर्चका प्रबन्ध खुद करेगा। फिर कमसे कम एक करोड़ सदस्य अर्थात् २५ लाख रुपये सारे भारतसे सदस्यता के चन्देके रूपमें प्राप्त करना कौन कठिन बात है? यदि हमारा संगठन या यों कहें कि सरकार दिनपर-दिन अधिकाधिक लोकप्रिय होती जायेगी तो हमारे सदस्योंकी संख्या दूनी हो जानी चाहिए। हमारे पास ऐसे सुयोग्य और ईमानदार अवैतनिक स्वयंसेवक काफी तादादमें होने चाहिए जो सिर्फ चन्दा वसूल करने का ही काम करें। यदि ऐसा न हो तो हमें अपनेको दिवालिया कहना चाहिए। यदि कांग्रेस देशके उत्तम और स्वाभाविक संवर्धनका लक्षण हो तो किसी भी प्रकारकी कोशिश के बिना यह नाम मात्रका सालाना व्यक्तिगत कर वसूल हो जाना चाहिए। और जो बात स्वयं कांग्रेसके विषयमें चरितार्थ होती है वही उसकी दूसरी संस्थाओं जैसे महाविद्यालयों, पाठशालाओं, बुनाईके कारखानों आदि पर भी घटती है। जो संस्था स्वयं अपने नैतिक बलपर स्थानीय जनताकी सहायता नहीं प्राप्त कर