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वह ताकत जो शंकरलाल सरीखे अनेक व्यक्तियोंको खामोश कर रही है मेरी इस कमजोर आवाजको भी दबा रही है। असहयोग आन्दोलन के कार्यकर्ताको बड़ी बेदर्दीसे पीटा जाता है और तबतक मार पड़ती रहती है जबतक कि पीटनेवाले के हाथ थक नहीं जाते। सत्याग्रहियों के कपड़े उतार लिये जाते हैं सो भी इस हदतक कि अपनी लाज ढकनेके लिए भी उनके पास कुछ नहीं रह जाता; उन्हें दूषित भोजन दिया जाता है और गन्दगीमें रखा जाता है जिसमें वे संक्रामक रोगोंके कीटाणुओंके शिकार बनते हैं; इस तरह उन्हें बरबस धीरे-धीरे मौतके मुँहमें ले जाया जाता है। ऐसी दर्दनाक कहानियाँ मैं बराबर सुन रहा हूँ।

इन पंक्तियोंके लेखक एक बहुत सुसंस्कृत और संवेदनशील युवक हैं। मैंने उनके पत्रमें से कुछ विवरणात्मक अंश निकाल दिये हैं। वे ऐसे कष्टोंके आदी नहीं हैं, इसलिए दिल्ली जेलमें असहयोगियोंके साथ जो दुर्व्यवहार हुआ उससे वे बहुत अधिक प्रभावित हुए। परन्तु इस अभियोगके सारमें सचाई है। कारण, उसकी सत्यताका प्रमाण और भी कई ऐसे सूत्रोंसे मिला है जिनका आपसमें एक दूसरेसे सम्बन्ध नहीं है। इस बातमें कोई सन्देह मालूम नहीं होता कि जब सरकार असहयोगियोंको झुकानेमें असमर्थ रही और जेल में ठूंसकर भी उनसे माफी न मँगवा सकी तो अब इस तरहके हुक्म जारी किये गये हैं कि इन लोगोंको शारीरिक यातनाएँ पहुँचाई जायें। ऐसा समय जरूर आता है जब अपनी सम्पूर्ण इच्छाशक्ति के बावजूद मनुष्यका शरीर यातना सहनेसे इनकार कर देता है और उसकी आत्माको भी अपनी अनिच्छा के बावजूद शरीरकी बात स्वीकार करनी पड़ती है। शासक अपनी इसी जानकारीका नाजायज फायदा उठाकर सत्याग्रहियोंकी स्वाभिमानी आत्माको दबाना चाह रहे हैं। और मुझे इस बातपर आश्चर्य नहीं होगा अगर उन सत्याग्रहियों में से कुछ लोग इस अमानवीय व्यवहारको, जिसे स्पष्टतः एक नियमित प्रणालीका रूप दिया जा रहा है, सहने में असमर्थ हो जायें और अपने शरीरको असह्य वेदनासे बचानेके लिए क्षमा-याचना कर लें।

लेकिन जहाँ इस बातके उदाहरण हैं कि आत्मा शरीरकी भयंकर यातनाओंको किसी निश्चित सीमासे आगे सहने में असमर्थ रहती है वहाँ ऐसे उदाहरणोंकी भी कमी नहीं है कि आत्माने भयंकर यातनाओंको सहने में विजय पाई है। यदि पहलेसे पर्याप्त मानसिक तैयारी हो तो कष्टकी अतिशयता स्वयं एक औषध बन जाती है जो कष्टका अनुभव ही नहीं होने देती; अलबत्ता उसमें सब कुछ सहने के लिए आत्माका संकल्प जरूरी है। आत्माके इस प्रबल संकल्पसे उत्पन्न आनन्दका आवेश पीड़ाकी अनुभूतिपर हावी हो जाता है। अपने देश या धर्मकी सेवा करनेमें जो आनन्द मिलता है वह आनन्द इतना अधिक होता है कि सेवाके दौरान होनेवाला कष्ट उस आनन्दमें खो जाता है।

इसलिए प्रत्येक सत्याग्रहीका यह कर्त्तव्य है कि वह सभी शारीरिक यातनाओंको सहे। लेकिन इसी तरह उसका यह भी कर्त्तव्य है कि वह अस्वच्छता और अपमान दोनोंका विरोध करे। वह खुशी-खुशी कोड़े सहेगा। लेकिन उसे रेंगकर चलने को कहा जाये तो