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सम्पूर्ण गांधी वाङ्‍मय

मुझसे यह कहा था, अंग्रेजोंके लिए यह गर्वकी बात है कि वे यह कह सकते हैं कि पिछले महायुद्ध में एक भी अंग्रेजने जासूसी नहीं की। किन्तु इसके विपरीत हम समझते हैं कि हमारे अलावा दूसरे सब भारतीय देशके शत्रु हैं। निस्सन्देह यह निराशावादी विचारके लोगोंका दृष्टिकोण है। अपने बारेमें इतनी ओछी राय रखकर हम राष्ट्रकी हत्या कर रहे हैं।

मैं हर बंगाली मित्रको जो यहाँ आया है सावधान करना चाहता हूँ कि यदि वह यह चाहता है कि ये आशावान् कैदी रिहा कराये जायें और अपनी ताकतसे रिहा कराये जायें तो रिहा कराने के कई तरीके हैं। उन्हें मियादसे पहले रिहा करानेका सबसे स्वाभाविक तरीका है उनकी अपनी ताकतसे रिहाई। दूसरा तरीका है, वे सजा खत्म होनेपर रिहा किये जायें और तीसरा तरीका जो बहुत अधिक कमजोर बनानेवाला है, यह है कि वे अपनी मियादके बाद रिहा किये जायें। परन्तु जब वे जेलसे बाहर जायेंगे तब वे एक नये भारतको देखेंगे जो उनकी आशाका भारत न होगा, वरन् ऐसा भारत होगा जिसमें वे सम्भवतः लगातार दो दिन भी नहीं रह सकते। परन्तु मैं अन्तिम स्थितिकी सम्भावना नहीं कर सकता। लेकिन अगर हममें असहिष्णुताकी भावना बनी रहती है तो इस स्थितिकी सम्भावना बहुत बढ़ जायेगी। इस तरह यह असहयोग की भावनाके ही विपरीत है। असहयोग निराशाका सिद्धान्त नहीं है। असहयोग घृणा और बेबसीका सिद्धान्त नहीं है। यह तो प्रेमका सिद्धान्त है। किन्तु मैं नहीं चाहता कि आप अभी उस सरकारके बारेमें सोचें जिससे हम असहयोग कर रहे हैं। मैं तो केवल यह चाहता हूँ कि आप अपने देशभाइयोंके प्रति अपनी उदारता बरतें, फिर चाहे वे उदारदलीय हों, पुलिसमें हों, खुफिया पुलिसमें हों, वे कुछ भी हों, आपसे कहता हूँ कि आप उनके प्रति उदार बनें। और यदि आप ऐसा कर सकते हैं, तो हममें जितनी ताकत आज है, उससे बहुत अधिक हो जायेगी। और मैं इस बारेमें आपसे अत्यन्त हार्दिक अनुरोध करता हूँ।

मैं चाहता हूँ कि मोतीबाबूसे हुई बातचीतको मैं ज्योंका-त्यों दे सकूँ तो दूँ। जब मैं पिछली बार कलकत्तामें उनसे वकीलोंके बारेमें मिला था तब उनसे बातचीत हुई है। उसमें उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि मैं वकीलोंके प्रति कठोर न बनूँ। अवश्य ही मैं उस बातचीतको आपको विस्तारसे नहीं बता सकता।[१] मैं जानता हूँ कि मैंने कई अरुचिकर बातें कही थीं जो सच साबित की जा सकती हैं और जो उचित थीं। फिर भी मैंने वे किसी अनुदार भावनासे और निश्चय ही उनके और अपने बीच अलगाव पैदा करनेके लिए नहीं कही थीं। मैं चाहता था कि वे नेतृत्वसे या उस पूर्ण नेतृत्वसे जो उनके हाथमें है हटा दिये जायें।

परन्तु मेरा ऐसा जरा भी इरादा कभी नहीं था कि वे जनताकी सेवासे विलग कर दिये जायें। इसके विपरीत मैंने सभी वकीलोंको, वकालत करनेवाले वकीलोंको भी, राष्ट्र सेवामें लगानेका प्रयत्न किया है क्योंकि यदि वे शर्तें पूरी नहीं कर सकते तो वे असहयोग समिति आदिमें अधिकारीके रूपमें अच्छी तरहसे काम नहीं कर सकते।

  1. देखिए खण्ड १८, पृष्ठ २७८-२८१।