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सम्पूर्ण गांधी वाङ्‍मय

सब-कुछ मैं कोई भूल करने की छूट लेनेकी खातिर नहीं लिख रहा हूँ। सम्पादकका कर्त्तव्य तो अपनी जिम्मेदारीको अच्छी तरह निभाना और अगर वह उसे न निभा सके तो अपने पदको छोड़ देना है। सम्पादक बनने के लिए किसीपर जोर-जबरदस्ती तो की नहीं जाती। अगर पत्रको छापनेवाले, कम्पोजिटर तथा प्रूफ पढ़नेवाले सब कुशल कार्यकर्त्ता न हों तो इसमें दोष तो सम्पादकका ही माना जायेगा। इन परिस्थितियों में उसने सम्पादन-कार्यको सँभाला ही क्यों था? यह तो अन्तिम आदर्श ही है। लेकिन यदि कोई यह मानकर बैठ रहे कि वह आज ही इस आदर्शकी प्राप्ति नहीं कर सकता तो वह काम शुरू ही नहीं करेगा, तब तो वह इस आदर्शको कदापि नहीं पा सकेगा। इसलिए सम्पादकपर पाठकोंका चाबुक तो रहना ही चाहिए। मात्र चाबुक चलानेमें उन्हें थोड़ी कलाका परिचय देना चाहिए। एक तो डायरकी भाँति चाबुक मारनेवाला मनुष्य होता है और दूसरा उस उदार राजाकी भाँति जो शोभाके लिए ही हाथ में चाबुक रखता है, लेकिन बिगड़े हुए घोड़ेपर उसका इस्तेमाल करता है ताकि घोड़ा यह न समझ ले कि चाबुक केवल शोभाकी ही वस्तु है।

जेल में नेहरूजी से मुलाकात

एक आश्रमवासीने लखनऊ जेलमें पण्डित मोतीलाल नेहरूसे मुलाकात करने के बाद मुझे एक पत्र लिखा है। यह इतना सुन्दर है कि मैं इसे पूराका-पूरा नीचे प्रकाशित कर रहा हूँ:[१]

राजकोटवासी

अगर कोई राजकोटपर आरोप लगाये तो मुझे दुःख हुए बिना कैसे रह सकता है? थोड़े दिन पहले एक बहनने मुझसे यह कहा कि अब यदि मैं राजकोट जाऊँ तो मुझे खादी-ही-खादी दिखाई देगी। वहाँ विदेशी वस्त्र तो बहुत कम लोग पहनते हैं। यह बहन फिलहाल राजकोटमें रहती है और स्वयं जब बाहर निकलती है तब तो मुख्यतः खादी ही धारण करती है। इससे उसने ऐसा मान लिया जान पड़ता है कि कमसे कम राजकोटमें तो हर कोई खादी ही पहनता है। लेकिन राजकोट-निवासी एक नवयुवक जो स्वदेशीका पूरा-पूरा पालन करता है और जो अधिक घूमा-फिरा नहीं है, राजकोटके सम्बन्धमें यह लिखता है:[२]

यह टीका कड़ी है। इसका समर्थन अनायास ही एक ऐसे काठियावाड़ी सज्जनने किया है जो बहुत ही चतुर पर्यवेक्षक हैं। उक्त टीकामें सम्भावित अतिशयोक्तिकी गुंजाइश रख लें तो भी यह वास्तविक हो सकती है। काठियावाड़ने तिलक स्वराज्यकोषमें उचित राशि दी थी। मैं जानता हूँ कि अमरेलीमें खादी बनानेकी सुन्दर व्यवस्था है और काठियावाड़में खादीका अच्छा उत्पादन होता है। किन्तु यह दुःखकी बात है कि बड़े शहरोंमें रहनेवाले काठियावाड़ी विदेशी वस्त्रोंके प्रति अपने मोहका

  1. यहाँ पत्रका अनुवाद नहीं दिया गया है।
  2. यहाँ इसका अनुवाद नहीं दिया गया है। इसमें लेखकने लिखा था कि राजकोटमें स्वदेशीकी दिशामें कोई प्रगति नहीं हुई है।