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३८. पत्र:महादेव देसाईको

शुक्रवार [२३ दिसम्बर, १९२१ या उसके पूर्व][१]

भाईश्री महादेव,

तुम्हारा पत्र पढ़ा। तुम्हारे 'दुःख' और सुख दोनोंका ही कोई अन्त नहीं है। इसपर जिस दृष्टिसे विचार करना चाहें उस दृष्टिसे विचार किया जा सकता है। भगवान् करे, तुम अपने निश्चयपर अटल रहो।

तुम्हें जबतक वहाँ अथवा … रहने की जरूरत जान पड़े … तक रहो। अपने परिवारका तुमपर बड़ा दायित्व है, उसका भी तुम्हें निर्वाह करना है।

तुम्हें बहनोंके विवाहका प्रबन्ध करना चाहिए अथवा नहीं, इस सम्बन्धमें मैं किसी निष्कर्षपर नहीं पहुँच सका हूँ। अगर मैं तुम्हारे स्थानपर होऊँ तो मैं पिताजीसे स्पष्टरूपसे बात कर लूं अथवा यदि उनका विवाह करनेका अधिकार मेरे ही हाथमें हो तो जिसने नरसिंह मेहताकी ओरसे भोजकी व्यवस्था कर दी थी उस भगवान्पर विश्वास रखता और अपनी बहनके गलेमें सूतकी माला पहनाकर उसे ससुराल भेज देता। मेरी सलाह यही है। तुम्हें दुर्गासे[२] सलाह … वह दुःखित हो तो … पिताजी से तो बात …[३] उनकी सलाह तो लेनी चाहिए और बादमें तुम्हारी आत्मा जो कहे सो करना चाहिए। तुम सब कुछ दे दो तो भी कोई हर्ज नहीं और यदि कुछ भी न दो तो भी मैं समाजके सामने तुम्हारा समर्थन करूँगा। मेरी कलकी बात मेरे अन्तस्तलसे निकली हुई विचारधारा थी। उस धारामें मुझे ही बहना है, किसी दूसरेको नहीं। इस प्रवाहको देखकर यदि दूसरोंके हृदयोंमें भी वैसी ही भावनाएँ प्रस्फुटित हो जायें तो वे उनमें खुशीसे अवगाहन करें। सिखाये पूत दरबार नहीं चढ़ते। मथुरादासने जो उत्तर दिया वह सही था। जो सर्वस्व अर्पण करना चाहता है वह स्वत: करेगा ही।

हाँ, तुमने मुझसे पूछा सो ठीक ही किया। मैंने जो ऊपर कहा है वही तुमसे भी कहूँगा। हमें अधिकसे-अधिक श्रद्धावान् बननेका प्रयत्न तो करना ही होगा।

बापूके आशीर्वाद

मूल गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ ८७६३) की फोटो-नकलसे।

  1. अनुमानतः यह पत्र प्रापकको २४ दिसम्बर, १९२१ को उनके जेल जानेसे पूर्व लिखा गया था। उनके पिता उस समय जीवित थे और तबतक उनकी किसी भी बहनकी शादी नहीं हुई थी। उनकी एक बहनका विवाह १९२२ में हुआ और १९२३ में उनके पिताकी मृत्यु हुई।
  2. महादेव देसाईकी पत्नी।
  3. साधन-सूत्र जहाँ-तहाँ क्षतिग्रस्त है।