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मद्रास परिषद् में चरखेकी चर्चा

मद्रास विधान परिषद् में चरखेके विषयपर चर्चा हुई थी। एक सदस्यने एक संकल्प प्रस्तुत किया था कि सरकारको और अच्छे किस्मके चरखे चालू कराने चाहिए और हाथकी कताई-बुनाईको प्रोत्साहित करना चाहिए। सविस्तार चर्चाके बाद प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया गया। २३ सदस्योंने उसके पक्षमें मतदान किया। प्रस्तावके विरोधमें ये दलीलें दी गई थीं कि "खादीका वस्त्र बोरे जैसा ही होता है और कोई भी समझदार आदमी मिलके सस्ते कपड़े के मुकाबिले उसे पहनना पसन्द नहीं करेगा;" और "मशीनोंके इस युगमें हाथकी कताईकी ओर वापस लौटना अपराधपूर्ण होगा;" और 'हाथका कता कपड़ा कमजोर होता है;" और आखिरी दलील यह कि "चरखेसे तो चरखा चलानेवालों का हो पूरा भरण-पोषण नहीं हो पाता इसलिए उसपर जनताका पैसा बरबाद नहीं किया जाना चाहिए।" परिषद् में चरखेके हिमायती सदस्योंने इन सभी दलीलोंका काफी ठीक-ठीक उत्तर दिया था। लेकिन चर्चामें एक दिलचस्प बात यह सामने आई कि सम्बन्धित विभाग के मन्त्रीने सिद्धान्त पेश किया कि चरखे से जीविका-निर्वाह नहीं हो सकता, और मद्रास सरकार के अर्थ-विशेषज्ञ डा॰ स्लेटरने इस सिद्धान्तका विरोध किया और मन्त्रीसे अनुरोध किया कि वे इस मामलेपर "खुले दिमागसे", बिना किसी पूर्वग्रहके विचार करें। डा॰ स्लेटर इस तथ्यको समझते हैं कि भारतके दिन-दिन निर्धन बनते कृषकोंके लिए कताई-जैसे किसी एक अनुपूरक धन्धेकी बड़ी जरूरत है। परन्तु परिषद् के पूर्वग्रहग्रस्त सदस्योंके बहुमतने उनकी विशेषज्ञतापूर्ण रायकी परवाह नहीं की। परिषद् के सदस्य तथ्योंको खुली आँखों देखना भी नहीं चाहते। उनको पता ही नहीं है कि मद्रास प्रेसीडेंसी में आजकल भी बड़ी ही महीन किस्मकी हाथकी कती खादी तैयार होती है। उन्होंने यह जानने का कष्ट भी नहीं उठाया कि जीवन- भर सूक्ष्म से सूक्ष्म अनुसंधानोंमें और बड़ी-बड़ी कम्पनियोंको खड़ी करने में लगे रहनेवाले एक वैज्ञानिक डा॰ राय[१]-जैसे व्यक्तिने भी चरखेके सिद्धान्तको अपना लिया है। तब इसमें आश्चर्य की बात ही क्या है कि खादीका सन्देश सुननेवाले उच्च वर्ग के स्त्री-पुरुष बाजारोंमें फेरी लगाकर खादीका प्रचार करना जरूरी समझते हैं?

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २२-१२-१९२१
  1. डा॰ (सर) प्रफुल्लचन्द्र राय (१८६१-१९४४ ); वैज्ञानिक और देशभक्त।