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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


मनुष्यकी हत्या की, तो उसके पीछे तो जाने कितनी खटपट, कितना पाखण्ड रहा होगा ।"

श्रावकोंसे और दूसरे सब लोगोंसे मैं कहता हूँ कि जीवदयाका अर्थ केवल कीड़े- मकौड़े आदि सूक्ष्म जन्तुओंको न मारना ही नहीं है । यह सच है कि उन्हें नहीं मारना चाहिए लेकिन मनुष्य योनिके किसी भी जीवको धोखा नहीं देना चाहिए। तिसपर भी अधिकांश व्यापारी इसके सिवा और क्या करते हैं ? यदि कोई श्रावक मुझे अपनी बहियाँ दिखाये तो मैं उसे बता दूंगा कि वह श्रावक नहीं है। जिस कपड़ेका हम व्यापार करते हैं वह कैसे तैयार होता है ? उसके उत्पादनमें कहीं कोई पापकर्म तो नहीं है; उसको जो माँड़ी दी जाती है उसमें चरबी तो नहीं होती, इन बातोंपर व्यापारियोंको विचार करना चाहिए। दुगुना दाम लेना उन्हें ह्राम होना चाहिए। यह श्रावकों का धर्म नहीं है । अपनी मजदूरी के खयालसे चीजोंके दाममें वे एक पैसा अथवा दो पैसे चढ़ाएँ, यह तो ठीक है, लेकिन इतनी सब खटपट किसलिए ? इतना पाखण्ड क्यों ? ब्याज तो इतना अधिक लिया जाता है कि देनेवाला बिलकुल मर जाता है । जहाँ जाता हूँ वहाँ श्रावक और वैष्णव दोनों ही प्रकारके बनियोंके खिलाफ शिकायतें मिलती हैं। अनेक गोरे मुझपर व्यंग कसते हैं कि आपके लोग ही कितना ज्यादा ब्याज लेते हैं ।

हमें नीच बनिया न रहकर शुद्ध क्षत्रिय बन जाना चाहिए। वैश्य-धर्म अर्थात् मजूरी बिलकुल नहीं, हल नहीं, शौर्य नहीं, विवेक नहीं सो बात नहीं । सच्चा वैश्य तो अपनी उदारतामें शौर्य -- क्षत्रियत्वका प्रदर्शन करता है, व्यापारमें विवेक बरततां है; वह शराब नहीं बेचेगा, मछली नहीं बेचेगा, सिर्फ शुद्ध खादी ही बेचेगा और वह विवेकका विकास करके ब्राह्मण-धर्मका भी पालन करेगा। अन्य सब लोग हमारे लिए मजदूरी करें और हम पड़े-पड़े खाते रहें तो हम पतित बनते हैं । यज्ञके रूपमें भी हमें प्रतिदिन थोड़ी-बहुत मजदूरी कर लेनी चाहिए ।

बनियेका मुख्य धर्म तो व्यापार ही रहे लेकिन उसमें अन्य धर्मोका समावेश भी अवश्य होना चाहिए। अपनी स्त्रीकी रक्षाके लिए अगर मुझे काबुली अथवा पठान रखना पड़े तो उसकी अपेक्षा मुझे. • मेरे हिन्दू होने के बावजूद • अपनी स्त्रीसे तलाक ले लेना चाहिए । लेकिन आज अधिकांश बनिये क्या करते हैं ? उन्होंने सिपाही, भैया- लोग और पठान रख छोड़े हैं । वे भले ही इन्हें भी रखें इस बातसे मुझे कोई ईर्षा नहीं, लेकिन अगर आपमें अपनी स्त्री और बच्चोंकी रक्षा करनेकी ताकत नहीं है, तो आप जाकर कुटिया में बैठ जायें और वहाँ रहकर अपने धर्मको सुशोभित करें। उस हालत में, दुखियोंकी रक्षाके लिए दौड़नेके धर्मसे बनिया मुक्त हो जायेगा; जब जहाँ ऐसे दुःखी दिखाई देंगे वहाँ क्षत्रिय उनकी रक्षा करनेके लिए पहुँच जायेंगे ।

रायचन्दभाईके जीवनसे मुझे सबसे बड़ी बात यह दिखाई दी कि बनियेको बनिया ही बने रहना चाहिए। आज तो बनिये, बनिये नहीं रहे । सच्चा बनिया बननेके लिए बड़ा पण्डित बनने अथवा बड़ी-बड़ी पोथियाँ पढ़ने की जरूरत नहीं है । जो मलिन न हो, यम-नियमका पालन करनेवाला हो, असत्य और अधर्मसे दूर रहनेवाला हो, जिसके हृदयको काम-वासना छू तक न गई हो, जिसके हृदयमें दयाधर्मका वास हो वह