मेरी महत्वाकांक्षा
शिमलाके एक आग्रही सज्जन मुझसे पूछते हैं कि क्या मेरी इच्छा कोई नया सम्प्रदाय स्थापित करनेकी या देवी पुरुष होनेका दावा करनेकी है। मैंने उन्हें एक निजी पत्रमें उनके प्रश्नका उत्तर दे दिया था। लेकिन वे चाहते हैं कि भावी पीढ़ियोंका खयाल करके मैं इस प्रश्नपर अपनी बात लोगोंके सामने सार्वजनिक रूपसे भी कह दूं। मेरा खयाल था कि अपने देवी पुरुष होनेकी बातका खण्डन मैं काफी सख्त शब्दोंमें कर चुका हूँ। हाँ, भारत और मनुष्य जातिका एक नम्र सेवक होने का दावा अवश्य करता हूँ और ऐसी सेवा करते हुए मरनेकी इच्छा रखता हूँ। सम्प्रदाय स्थापित करनेकी मेरी कतई कोई इच्छा नहीं है। सच पूछिए तो मेरी महत्वाकांक्षा इतनी बड़ी है कि वह सम्प्रदाय स्थापित करके और चन्द अनुयायी पाकर सन्तुष्ट नहीं हो सकती। कारण यह है कि मैं किसी नये सत्यका प्रतिपादन नहीं कर रहा हूँ। मेरी कोशिश सत्यको जिस रूपमें मैं जानता हूँ, उस रूपमें उसका अनुसरण करनेकी और उसे अपने जीवनमें उतारनेकी है। कई पुराने सत्योंपर नया प्रकाश डालनेका दावा मैं जरूर करता हूँ। मैं आशा करता हूँ मेरे इस वक्तव्यसे मेरे प्रश्नकर्त्ता और उनके जैसे दूसरे लोगोंका सन्तोष हो जायेगा।
यंग इंडिया, २५-८-१९२१
७. न्यायका स्वांग
मैं पहले एक अंकमें[१] इस बातका उल्लेख कर चुका हूँ कि २५ जुलाईको कराचीमें लोकप्रिय धर्म-प्रचारक, समाज सुधारक और धरना-आन्दोलनके प्राण स्वामी कृष्णानन्दकी गिरफ्तारी, मुकदमेकी सुनवाई और एक सालकी सख्त कैद - - तीनों बातें तीन घंटे के अन्दर समाप्त कर दी जानेकी खबर पानेपर भीड़ने लज्जास्पद व्यवहार किया था। कचहरीके चारों ओर सैनिक तैनात थे और मुकदमा एक प्रकारसे बन्द कमरे में किया गया था। स्वामीजी २० तारीखको गिरफ्तार हुए थे परन्तु एक घंटेकी हवालातके बाद ही छोड़ दिये गये थे। गत पच्चीस तारीखको उसी अभियोगमें बिना चेतावनी के उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया। उनपर कर्त्तव्यपालनमें संलग्न एक कान्स्टेबलको मारनेका अभियोग लगाया गया। प्रोफेसर वासवानी[२], जो स्वामीजी के सम्पर्कमें थे और अदालत में मौजूद थे, साक्षी देते हैं[३] कि स्वामीजीने सिपाहीको कदापि नहीं मारा बल्कि सिपाहीने ही उन्हें मारा और काफी मारा। कारण यह था कि वे एक मित्रके साथ बातें कर रहे थे, और उन्होंने अपनी जगहसे हटनेसे इनकार किया था। भीड़को