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१५७. बम्बईकी सुन्दरता

बम्बई सुन्दर है । इसलिए नहीं कि वहाँ बड़ी-बड़ी इमारतें हैं; क्यों कि ये इमारतें अधिकतर तो भयंकर गरीबी और गन्दगीका आवरण-भर हैं । इसलिए भी नहीं कि वह सम्पन्न है; क्यों कि अधिकांशतः यह धन जनताके शोषणसे कमाया जाता है । उसकी सुन्दरताका मूल कारण उसकी उदारता है जिससे सारा संसार परिचित है। दानवीरता सबसे पहले पारसियोंने दिखाई और फिर बम्बईने हमेशा उसे निबाहा । बम्बईकी उदारता के कारण उसके अनेक पापोंपर पर्दा पड़ गया है। तिलक स्वराज्य- कोषके मामलेमें बम्बईने अपने सब पुराने रिकार्ड तोड़ दिये हैं । १६ जून और ३० जूनके बीच बम्बईने इस कोषमें २|| लाख रुपये प्रतिदिनके हिसाबसे चन्दा दिया । बम्बईके कारण भारत अपने वायदेपर कायम रह सका । मुझे सन्देह नहीं कि चित्तरंजन दास बम्बईके इस दावेको स्वीकार करेंगे कि बंगालको उसीके उत्साहकी छूत लगी और उसे त्राता बननेका अवसर दिया और बंगाल ३ लाखसे छलाँग लगाकर एकदम २५ लाखपर पहुँच गया। यदि ऐसा न हुआ होता तो बम्बईके अच्छे-अच्छे कार्य- कर्त्ताओंके भगीरथ प्रयत्नोंके बावजूद भारत एक करोड़ रुपया जमा न कर पाता । इसीलिए मैंने कहा कि बम्बईकी सुन्दरता उसकी उदारता के कारण है ।

कितने सदस्य बनाये गये कितने चरखे दाखिल किये गये इसके आँकड़ें तो उपलब्ध नहीं हैं; किन्तु यह चन्दा भारतके दृढ़ संकल्पका सबसे ज्वलन्त प्रमाण है ।

भारतने जैसा मान स्वर्गीय लोकमान्यको दिया है वैसा आजतक और किसीको नहीं दिया । किन्तु यह एक करोड़ तो उस स्मारककी पहली सीढ़ी ही समझिए जिसे हम लोकमान्यकी स्मृतिमें खड़ा कर रहे हैं; उसका कलश तो स्वराज्य ही है। ऐसे महान् पुरुषकी स्मृतिके प्रति श्रद्धा प्रकट करने योग्य स्मारक तो स्वराज्य ही हो सकता है, इससे कम और कोई चीज नहीं ।

तो भी हमें आत्मवंचना नहीं करनी है। स्मारक सम्बन्धी प्रस्तावमें निहित भावनाके प्रति सचाई बरतने के लिए प्रत्येक प्रान्त और प्रत्येक जिलेको अपनी जन- संख्या के अनुपात में चन्दा देना चाहिए था। दो पैसे प्रति व्यक्तिके हिसाबसे देना साधारण स्त्री या पुरुषकी सामर्थ्य से बाहर नहीं था । मुझे आशा है कि प्रत्येक प्रान्त शीघ्रसे- शीघ्र अपना निर्धारित अंश पूरा कर देगा ।

यह चन्दा हमारी लम्बी यात्राका प्रथम चरण है। इस एक करोड़ रुपयेसे स्वराज्य नहीं मिलनेवाला । सारे संसारका धन भी हमें स्वराज्य नहीं दे सकता। पूरी तरह स्वतन्त्र होनेके लिए पहले हमारा आर्थिक रूपसे स्वतन्त्र होना आवश्यक है। भूखों मरते हुए व्यक्तिसे भजनकी आशा करना व्यर्थ है। भूखसे विकल आदमी तो अपनी आत्मा भी बेच देगा । उस बेचारेके पास आत्मा कहाँसे आई। इसलिए स्वतन्त्रताकी बात सोचने के पहले उसे यह अनुभूति जरूर होनी चाहिए कि वह आर्थिक रूपसे किसीका मोहताज नहीं है । और यह तबतक नहीं हो सकता जबतक भारत कपड़ेके