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सीमा-प्रान्तके साथी


अपनी रोजमर्राकी जिन्दगीमें हमने जान-बूझकर भगवान्पर भरोसा करना छोड़ दिया है। हम अपने व्यवहारमें पूरे नास्तिक हो गये हैं। अपनी सुरक्षाके लिए शारीरिक बलपर निर्भर करनेका विश्वास हममें उत्तरोत्तर दृढ़ होता जा रहा है। लेकिन प्राणोंका भय सामने आते ही हम सारा ज्ञान भूल जाते हैं और हमारी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है। हमारा दैनिक जीवन ईश्वरसे पराङ्मुख हो गया है। अगर भगवान्‌में, यानी कि अपने-आपमें, हमारा जरा-सा भी विश्वास होता तो कबाइलियोंके मामलेमें हमें कोई भी परेशानी न होती। हमला होनेपर हमें अपना माल मत्ता उन्हें सौंपनेको तैयार रहना होगा और बाज मौकोंपर तो अपनी इज्जतका सौदा करनेके बदले जान देनेपर ही उतारू हो जाना पड़ेगा। हमें इस बातपर विश्वास करनेसे कतई इन्कार कर देना चाहिए कि हमारे ये पड़ोसी इन्सानियतसे शून्य, निरे जंगली हैं।

हमारे आत्म-सम्मानका तकाजा तो यही है कि हम दोमें से कोई एक मार्ग अपनायें, कमजोर होते हुए भी लूट-पाटसे अपनी रक्षा आप करनेके लिए तैयार हो जायें, या अपने पड़ोसियोंकी इन्सानियतमें विश्वास करके उन्हें सुधारनेकी कोशिश करें। मेरा तो खयाल है कि दोनों ही काम हमें एक साथ करने होंगे। तीसरे मार्ग, यानी कि अपनी रक्षाके लिए अंग्रेजोंके गोला-बारूदपर भरोसा करनेके मार्गके बारेमें तो हमें कभी सोचना भी नहीं चाहिए। यह तो खुद अपने हाथों अपने देशका और अपनी जातिका गला घोटना होगा।

अगर कबाइलियोंतक मेरे लेख पहुँच सकें तो मैं उनसे अनुरोध करूँगा कि वे लुटेरेपनकी आदत छोड़ दें। जब भी वे किसी मर्द या औरतको लूटते हैं तो जिस पैगम्बरपर उन्हें इतना नाज़ है और जिसे वे रहमोकरम और इन्साफोअमनके वली अल्लाहतालाका दूत मानते हैं, उसीकी हिदायतोंकी खिलाफवर्जी करते हैं। ऐसे हर मुसलमान और उलेमाका, जिसका थोड़ा-बहुत भी असर इन भोले-भाले लोगोंपर है, उन्हें यह समझाना फर्ज हो जाता है कि जो खतरा सिरपर मँडरा रहा है, उससे इस्लाम- की हिफाजत करनेमें अगर वे अपनी ओरसे हाथ बँटाना चाहते हैं, तो इन्हें सबसे पहले अपने पड़ोसियोंको सताना बन्द कर देना चाहिए, क्योंकि उनके पड़ोसी, चाहे हिन्दू हों या मुसलमान, न सिर्फ यह कि उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचाते बल्कि इस्लामकी सम्मान-रक्षाके लिए भरपूर कोशिश भी कर रहे हैं।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, २५-५-१९२१