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६७. सीमा-प्रान्तके साथी

सीमा-प्रान्तमें[१] रहनेवाले पंजाबी भाई सारे भारतकी सहानुभूतिके अधिकारी हैं। आसपासके कबाइली उनपर हमले करते हैं। वे अरक्षित हैं और जो समाचार मुझे मिले हैं उनसे पता चलता है कि सरकार उनकी हिफाजतका कोई इन्तजाम नहीं करती। और इधर तो अफसरोंका यह कायदा ही बन गया है कि अगर कोई उनसे शिकायत करता है तो वे शिकायत करनेवाले को सीधा मेरे या अली बन्धुओंके पास भेज देते हैं। अगर सीमा-प्रान्तका इन्तजाम हमारे हाथमें दे दिया जाये तो हम वहाँके लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। उन जिलोंके निहत्थे निवासियोंकी रक्षाके प्रयत्नमें हम मर मिटेंगे। जरूरत हुई तो आत्म-रक्षाके लिए वहाँकी ओबादीको हम हथियार भी देंगे। लेकिन जो सबसे बड़ा काम हम करेंगे वह होगा उन कबाइलियोंके मनको जीतना, जिससे लूट-मार करनेवाले गिराहोंसे बदलकर वे भरोसे लायक पड़ोसी बन जायें। लेकिन आज तो वहाँकी जैसी हालत है उसीको ध्यानमें रखकर हमें विचार करना होगा। मेरा खयाल है कि उस इलाकेके हिन्दू और मुसलमान आपसमें एक-दूसरेके दोस्त हैं और कोई भी मुसलमान अपने हिन्दू भाईके खिलाफ कबाइलियोंकी मदद करनेकी दुष्टता नहीं करता। सीमाके इस ओर बसी हुई मुस्लिम आबादी चाहे तो उनकी बहुत अच्छी तरह मदद कर सकती है।

कबाइलियोंकी ओरसे निराश होना भी जरूरी नहीं। हम उन्हें अक्सर बुरा ही समझते रहे हैं। मगर मेरे खयालमें वे उतने बुरे नहीं हैं। समझानेका उनपर असर हो सकता है। वे खुदासे खौफ खानेवाले लोग हैं। वे सिर्फ मजेकी खातिर लूट-मार नहीं करते। मेरे खयालमें आत्म-शुद्धिके आन्दोलनका असर उनपर भी खुद-ब-खुद होता जा रहा है।

मैं जानता हूँ कि कबाइलियोंको सुधारनेका काम बहुत मुश्किल और समय साध्य है। जिनका मालमत्ता लूटा जा रहा है, या जिन्हें अपने प्रियजनोंसे बिछुड़ना पड़ रहा है, उन्हें इससे कोई सान्त्वना नहीं मिलती।

इस परेशानीका भी वही कारण है — हमारा डर; हम अंग्रेजोंसे डरते हैं और इस तरह उनके गुलाम हो गये हैं। हम कबाइलियोंसे डरते हैं और अपनी गुलामी में सन्तुष्ट हैं। हम यही सोचकर खुश हैं कि अंग्रेज हमें कबाइलियोंसे बचाये हुए हैं। जिसमें जरा भी आत्म-सम्मान है उसका अपनी या अपने परिवारकी सुरक्षाके लिए उसपर निर्भर करना जिसे वह अपनेपर अत्याचार करनेवाला समझता हो, इतने बड़े अपमानकी बात है जिससे बड़े अपमानकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। अपनी मर्दानगी खोकर सुरक्षा पानेके बजाय मैं अपने सर्वस्व सहित तबाह हो जाना बेहतर समझूँगा। हमारे अन्दर बेबसीकी इस भावनाके पैदा होनेका असली कारण यह है कि

  1. पश्चिमोत्तर सीमान्त।