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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


सिखाता है कि किसी भी महत्त्वपूर्ण बातको हम सरकारपर निर्भर रहे बिना कर सकते हैं। सरकार जनता द्वारा बनाया हुआ एक साधन है। अगर साधन अविश्वसनीय हो जाये तो बनानेवाले को उससे काम न लेनेका पूरा अधिकार है। लेकिन अगर बनाने वाला ही असहाय हो गया तो साधन उसका मालिक बन बैठेगा और वह साधनका गुलाम हो जायेगा। आज हमारी यही हालत है और जैसे भी हो हमें इस हालतसे उबरना ही होगा।

स्थगनका इरादा

उनका आखिरी सवाल है : “अगर देशकी ओरसे कांग्रेसकी पुकारको जैसा चाहिए वैसा जवाब नहीं मिला तो क्या तबतक के लिए स्वराज्यकी लड़ाई मुल्तवी कर दी जायेगी?” मुझे तो इस विचारसे ही डर लगता है। स्वराज्यके आन्दोलनको रोकनेका मतलब है देश और जनतामें अविश्वास। मुझे तो यही लगता है कि समय आनेपर देश आगे आयेगा, जरूर आगे आयेगा। लेकिन यह ऊपरके सवालका सही जवाब नहीं हुआ। सही जवाब तो बेशक यही होगा कि अगर देशने असहयोग कार्य-क्रमको ठीकसे नहीं अपनाया तो स्वराज्य हासिल करनेमें उस हदतक देर हो जायेगी।

जुएका अभिशाप

काशी विद्यापीठके कुलपति बाबू भगवानदासजीने[१] जुएकी निन्दामें ‘मनुस्मृति’ से जो उद्धरण भेजे हैं उन्हें मैं यहाँ दे रहा हूँ:

राजाको अपने राज्यसे द्यूत (जुआ) और समाह्वय (बाजी लगाने) को प्रयत्नपूर्वक दूर रखना चाहिए क्योंकि ये व्यसन राज्य और राजा दोनोंको नष्ट कर डालते हैं। (२२१)

जुआ खेलना और बाजी लगाना निस्सन्देह दिन-दहाड़े डाका डालना है; इन्हें निर्मूल करने के लिए राजाको सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए। (२२२)

द्यूत निर्जीव वस्तुओंसे खेला जाता है और समाह्वयमें प्राणियोंपर बाजी लगाई जाती है। (२२३)

जो इन्हें प्रकट या गुप्त रूपसे स्वयं खेले अथवा दूसरोंको प्रेरित किंवा प्रवृत्त करे उसे राजा अपने विवेकके अनुसार अपने निर्धारित व्यवसाय के बदले दूसरोंको छलनेके लिए, छल-व्यवसाय अपनानेवाले धूर्तों और प्रवंचकोंके समान प्राण-दण्डतक दे सकता है; अथवा द्यूतकारों एवं कितवों (बाजी लगानेवालों) को देशसे वैसे ही निष्कासित कर दे जिस प्रकार, संगीत, (नृत्य, गान एवं अभिनय) की ओटमें व्यभिचार (वेश्यावृत्ति) करनेवालों को; अथवा नशीले मद्य बनाने और बेचनेवालों को; निर्दय ठगोंको और दुराचरण फैलानेवालों और पापकर्म करनेवालों को। (२२४-२८)

  1. (१८६९ - १९५८ ); सुप्रसिद्ध दार्शनिक और लेखक; उत्तरप्रदेश कांग्रेसके एक प्रमुख नेता; सन् १९५५ में ‘भारतरत्न’ की उपाधिसे सम्मानित।