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और उनके जैसे बातके धनी मैंने बहुत थोड़े लोग देखे हैं। मुझे तो सिर्फ यही देखना है कि जबतक वे असहयोग आन्दोलनमें रहें, अहिंसाके प्रणका पालन करते रहें। श्री जेठमल अंग्रेजोंके बदले अफगानोंकी हुकूमत पसन्द नहीं करेंगे, ठीक यही बात अली बन्धुओंके साथ भी है; वे भी अफगानोंकी हुकूमतको कभी बरदाश्त नहीं करेंगे। मेरा विश्वास है कि समय पाकर वे यह समझ जायेंगे कि भारत हिंसासे कमसे-कम एक पीढ़ीमें तो किसी भी तरह मुक्त नहीं हो सकता। लेकिन इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं कि जिस मामूलीसे कार्यक्रमके बारेमें इन पृष्ठोंमें समय-समयपर लिखा जाता रहा है अगर देश उसपर अमल करे तो खिलाफत और भारतकी आजादी दोनों इसी एक बरसमें मिल सकते हैं।

संन्यास

एक वकील साहब, जिन्होंने वकालत छोड़ दी है, पूछते हैं कि क्या हर असहयोगीको संसार त्याग करके संन्यासी बन जाना चाहिए? लोगोंका खयाल है कि मैं संन्यासीकी तरह रहता हूँ। यह सवाल भी शायद इसीलिए पूछा गया है। बोअर युद्धमें हजारों स्त्री-बच्चोंको और पिछले महायुद्ध [१९१४-१८] में हजारों अंग्रेज, फ्रांसीसी और जर्मन लोगोंको जितना त्याग करना पड़ा, असहयोगका कार्यक्रम तो उसकी तुलना में बहुत ही कम त्याग चाहता है। इतने थोड़ेसे त्यागके बलपर हमारी ऐसी महान् सफलता केवल इसीलिए सम्भव है कि हमारा कार्यक्रम अहिंसात्मक है, हमारा पक्ष न्यायपूर्ण है और हम संख्यामें इतने अधिक हैं।

प्रतिवादीकी दुर्गति

उन्होंने आगे पूछा है कि अगर किसीपर झूठा मुकदमा दायर किया जाये तो वह क्या करे। करना क्या है, सरकारने झूठे मुकदमे चलाये और कई लोग जेल चले गये। यदि किसीपर झूठा मुकदमा दायर किया जाये, और अगर वादी पंच-फैसले के लिए राजी न हो तो वकील किये बिना ही अदालत में बयान दिया जा सकता है और गवाह पेश करके उनसे जिरह भी की जा सकती है। और फैसला भी उसके हकमें हो सकता है। ज्यादासे ज्यादा यही होगा कि वह हार जाये और दुष्टोंके हाथों तकलीफ भोगनी पड़े। लेकिन काबिलसे काबिल वकीलों द्वारा मुकदमे लड़े जानेके बावजूद क्या गलत फैसले पहले भी नहीं होते रहे हैं?

देशको सामर्थ्यपर सन्देह

तीसरा सवाल है : “क्या आप ऐसा मानते हैं कि असहयोग कार्यक्रमका रचनात्मक अंश राष्ट्रीय सरकार बने बिना पूरा हो सकता है?” यह सवाल बेबसीका सूचक है। अपने ध्येयतक पहुँचनेमें हमें जो देर हो रही है उसका एकमात्र कारण बेबसीकी हमारी यह भावना ही है। स्वराज्य तभी तो कायम होगा जब हमें अपने-आपपर भरोसा होगा। राष्ट्रीय सरकारको राष्ट्र ही तो बनाता है, न कि राष्ट्रको सरकार। सरकारकी मददके बिना हम शराब पीना क्यों नहीं छोड़ सकते? सरकारकी मदद के बिना हम विदेशी कपड़ेका बहिष्कार क्यों नहीं कर सकते? असहयोग हमें

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