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सम्पूर्ण गांधी वाङ् मय

पर ऐसे दृश्य असाधारण नहीं होते। डर्बनके बेस्टर्न स्टेशनका स्टेशन मास्टर तो इतनी नम्रता दिखाता है कि कुछ पूछिए ही मत। मगर भारतीय उस स्टेशनसे थर-थर काँपते हैं। और यही एकमात्र स्टेशन नहीं है जहाँ भारतीयोंको फुटबालके समान ठोकरें मार-मारकर एक स्थानसे दूसरे स्थानको भगाया जाता है। इसकी स्वतंत्र साक्षी मौजूद है। 'नेटाल मर्क्युरी' (२४-११-९३) ने लिखा है :

हमने एकाधिक बार देखा है कि हमारी रेलवे कुछ ऐसी नहीं है, जिसमें गोरे कर्मचारियोंके सभ्य व्यवहारसे गैर-गोरोंका दम घुटने लगता हो। और यद्यपि यह अपेक्षा करना उचित न होगा कि नेटाल-गवर्नमेंट रेलवेके गोरे कर्मचारी उनके साथ वैसे ही आदरका व्यवहार करें जैसाकि वे यूरोपीय यात्रियोंके साथ करते हैं, फिर भी हम समझते हैं, गैर-गोरे यात्रियोंके साथ व्यवहार करने में अगर वे जरा अधिक शिष्टतासे काम लें तो उनकी शानमें बट्टा नहीं लगेगा।

ट्रामगाड़ियोंमें भी भारतीयोंको बेहतर तजुर्बे नहीं होते। यूरोपीय यात्रियोंकी सनक पूरी हो, इसलिए बेदाग, स्वच्छ कपड़े पहने शिष्ट भारतीयोंको भी एक जगहसे दूसरी जगह खदेड़ा गया है। सच तो यह है कि ट्रामगाड़ीके कर्मचारी "सामीको छतपर चले जाने के लिए" बाध्य करते हैं। कुछ उन्हें सामनेकी जगहोंपर बैठने नहीं देते। आदर-मानका तो प्रश्न ही नहीं उठता। एक ट्राममें, बैठने की काफी जगह होनेपर भी, एक भारतीय सरकारी कर्मचारीको पायदान पर खड़े रहने को बाध्य किया गया था और उसे नेटालकी खास चोट पहुँचानेवाली ध्वनिमें "सामी" कहकर तो पुकारा हो गया था।

मेरा वक्तव्य नेटालकी जनता के सामने गत दो वर्षोंसे है और उसका प्रतिवाद 'पहली बार अब' एजेंट-जनरल द्वारा किया गया है! इतनी देरसे क्यों? अब रही भारतीयोंके मुफ्त वापसी टिकटका फायदा न उठाने की बात। सो, मैं एजेंट-जनरलके प्रति उचित सम्मानके साथ कहता हूँ कि यह कथन पत्रोंमें इतनी बार दुहराया जा चुका है कि इससे मन ऊब गया है। इतना होनेके बाद अब इसे सरकारी तौरपर जो गौरव प्रदान किया गया है, उससे यह अपनी शक्तिसे ज्यादा कुछ साबित नहीं कर सकेगा। ज्यादासे-ज्यादा यह इतना सिद्ध कर सकता है कि गिरमिटिया भारतीयोंका भाग्य बहुत दुःखमय नहीं है और नेटाल ऐसे भारतीयोंके लिए जीविका कमाने का बहुत अच्छा स्थान है। मैं दोनों बातें मानने को तैयार हूँ। परन्तु इससे अस्तित्व झूठा नहीं ठहरता। इससे भारतीयोंके प्रति उपनिवेशमें भयानक दुर्भावनाका अस्तित्व झूठा नहीं ठहरता । इतने पर भी अगर भारतीय नेटालमें रह रहे हैं तो ऐसे व्यवहारके बावजूद। इससे उनका आश्चर्यजनक धैर्य ही साबित होता है। श्री चेम्बरलेनने, दक्षिण आफ्रिकी शब्दोंका उपयोग किया जाये तो, "कुलियोंके पंचफैसले"—सम्बन्धी अपने खरीतेमें इस धैर्यको मुक्त कंठसे प्रशंसा की है।