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सम्पूर्ण गांधी वाङ् मय

न हो, उपनिवेशमें आनेका प्रयत्न करना किसीके लिए 'दण्डनीय अपराध नहीं है। नैतिक दृष्टिसे यह निश्चित भी है कि जिस वर्गके लोगोंपर यह विधेयक लागू है, वे आम तौरसे जानते न होंगे कि उपनिवेशमें प्रवेश करके वे उसके किसी कानूनका भंग कर रहे हैं। ऐसे कानूनको स्थिति उपनिवेशके साधारण कानूनोंसे भिन्न है, क्योंकि यह उन लोगोंपर लागू होता है जो उपनिवेशके अधिकार-क्षेत्रमें नहीं हैं और जिन्हें उसके कानूनोंसे परिचित होनेका कोई मौका नहीं मिलता। इसलिए यह काम कर्मचारियोंका है कि वे वजित प्रवासियोंको उतरने न दें। इस अवस्थामें, हमारा खयाल है, निर्वासन काफी होगा और दण्ड-सम्बन्धी कानूनको रद कर देना चाहिए। खण्ड ५ के बारेमें भी यही आपत्ति है। उसमें जमानत के रूपमें प्रवासीसे १०० पौंड जमा कराने की व्यवस्था की गई है। शर्त यह है कि अगर भविष्यमें वह "वजित प्रवासियों" की श्रेणीका निकले तो यह रकम जब्त कर ली जायेगी। हमें इस अमानतको जब्त करने में कोई न्याय दिखलाई नहीं पड़ता। अगर उसे वर्जित प्रवासी मानकर उपनिवेशसे निकल जानेको बाध्य किया जाता है तो उसकी रकम वापस कर दी जानी चाहिए। जहाजके अधिकारियोंको भारी दण्ड देनेकी उपधाराको निश्चय ही आलोचना की जायेगी। उससे तो जहाजके कप्तानपर यह कर्त्तव्य लद जाता है कि वह रवानगीका बन्दरगाह छोड़ने के पहले अपने सब यात्रियोंकी दशा तथा परिस्थितिकी बारीकीके साथ जाँच करे। कानूनके सफल प्रयोगको दृष्टिसे यह आवश्यक हो सकता है, परन्तु इससे जहाजके अधिकारी भारी कठिनाइयोंमें फँस जायेंगे।

यह देखा जायगा कि विधेयक जल तथा स्थल-मार्गसे उपनिवेशमें आनेवालों पर लागू होता है। हमारा खयाल है कि अगर उसे सिर्फ समुद्री रास्तेसे आनेवालों पर लागू किया जाये तो वह बहुत कम अप्रिय और अधिक सरलतासे अमलमें लाने योग्य बन जायेगा। स्थल-मार्गसे किसी भी बड़ी मात्रामें एशियाइयोंके आनेका भय बहुत कम है। बाकी लोग तो दक्षिण आफ्रिकाके एक राज्यसे दूसरे राज्यमें ही आनेवाले होंगे। उन्हें प्रतिबन्धसे जितना मुक्त रखा जा सके, रखना चाहिए। उनके अलावा देशी लोग होंगे। उनमें से ज्यादातर लोग शिक्षाकी कसौटीपर पूरे न उतरने के कारण निकल जायेंगे। शायद इससे हमारी मजदूर-प्राप्तिको धक्का पहुँचेगा—'नेटाल एडवर्टाइज़र', २४-२-९७।

क्या यह कहने का रुख अख्तियार करना उचित न होगा कि "अगर आपको एक वर्ग नहीं चाहिए तो दूसरा वर्ग नहीं मिलेगा?" यह रुख अख्तियार करना अशक्य नहीं है—यह भारतीय पत्रोंकी ध्वनिसे स्पष्ट है। कुछ दिन पहले हमने 'टाइम्स ऑफ इंडिया' का एक लेख प्रकाशित किया था। उसमें नेटालको करीब-करीब ललकारा गया था कि वह दो बातोंमें से एकको चुन