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सम्पूर्ण गांधी वाङ् मय

जो कुछ कमाते हैं, दूसरे हाथसे खर्च कर देते हैं। तो फिर वे जो-कुछ भारतको भेजते हैं, वह इस तरहकी जमीन-जायदादेके किरायेके रूपमें पाये हुए ब्याजका एक अंश-मात्र हो सकता है। भारतीयोंका जमीन-जायदाद खरीदना दुहरे लाभका है। उससे जमीनकी कीमत बढ़ती है और यूरोपीय राज-मिस्तिरियों, बढ़इयों और अन्य कारीगरोंको काम मिलता है। यूरोपीय कारीगरोंको भारतीय समाजसे डरने का कोई कारण है, यह एक काल्पनिक भूत-मात्र है। यूरोपीय और भारतीय कारीगरोंमें कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। भारतीय कारीगर तो हैं ही बहत थोड़े, और वे थोड़े भी साधारण कोटिके हैं। डर्बनमें भारतीयोंकी एक इमारत बनाने के लिए भारतीय कारीगरोंको लानेकी एक योजना बनाई गई थी, परन्तु वह विफल हो गई। कोई अच्छे भारतीय कारीगर यहाँ आनेको तैयार नहीं है। मेरे देखने में ऐसी बहुत-सी भारतीय इमारतें नहीं आई, जिन्हें भारतीय कारीगरोंने बनाया हो। उपनिवेशमें तो कामका एक स्वाभाविक बँटवारा हो गया है। कोई समाज किसी दूसरे समाजके कामको हथियाता नहीं।

अगर ऊपर व्यक्त किये गए विचार जरा भी युक्तिसंगत है तो मैं निवेदन करना चाहता हूँ कि कानूनी हस्तक्षेप अनुचित है। मांग और पूर्तिका नियम आपोंआप स्वतन्त्र भारतीयोंके आगमनको नियन्त्रित कर देगा। आखिर, यह तो मान ही लिया गया है कि भारतीय लोग यूरोपीयोंके बलपर ही फल-फूल सकते हैं। फिर अगर वे सचमुच धुन-रूप ही हैं, तो ज्यादा साम्मानजनक रास्ता यह होगा कि उन्हें यरोपीयों द्वारा वैसा सहारा न दिया जाये। तब, हो सकता है, भारतीय कुछ समय बौखलाहट दिखायें, मगर वे न्यायकी दृष्टि से शिकायत न कर सकेंगे। यह तो किसीको भी अन्यायपूर्ण मालूम होगा कि कानून पोषकोंकी शिकायतोंपर पोषितोंके जीवन में दस्तंदाजी करे। तथापि ऊपरकी सारी दलीलोंकी बिनपर मैं जो दावा करना चाहता हैं वह इतना ही है कि पहले जिस जाँच-पड़तालका सुझाव दिया जा चुका है उसे उचित सिद्ध करने के लिए इसमें बहुत-कुछ तथ्य है। इसमें शक नहीं कि प्रश्नका दूसरा पहलू भी होगा। अगर जाँच हो तो दोनों पहलुओंकी पूरी छान-बीन हो जायेगी और निष्पक्ष निर्णय प्राप्त किया जा सकेगा। तब हमारे कानून बनानेवालों को अपने कामके लिए और श्री चेम्बरलेनको अपने मार्गदर्शनके लिए खासी-अच्छी सामग्री मिल जायेगी। दस वर्ष पूर्व सर वाल्टर रैय और अन्य व्यक्तियोंके एक आयोग (कमिशन) ने जो मत दिया था, वह यह है कि स्वतन्त्र भारतीय इस उपनिवेशको लाभ पहुँचानेवाले हैं।[१] अगर पिछले दस वर्षोंमें परिस्थितियाँ इतनी बदल नहीं गई कि इस मतको स्वीकार ही न किया जा सके, तो कानून बनानेवालों के सामने इस समय विश्व सामग्री केवल इतनी ही है। तथापि ये सब विचार स्थानिक हैं। उपनिवेशके लोगोंको साम्राज्य-व्यापी दृष्टि से भी क्यों नहीं देखना चाहिए? और अगर देखना चाहिए तो कानूनकी नजरमें भारतीयोंको भी वही अधिकार मिलने चाहिए, जो दूसरी सब ब्रिटिश प्रजाओंको उपलब्ध हैं। भारत लाखों यूरोपीयोंको लाभ पहुँचाता है;

  1. प्रवासी भारतीय आयोगके निकाले हुए निष्कषों के लिए देखिए पृ॰ १९९–२०० और खण्ड १, पृ॰ २९२–९४ भी।