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सम्पूर्ण गांधी वाङ् मय

सम्बन्धमें अपने राजनीतिक विचारोंका प्रचार करने का उन्हें हमारे जितना ही अधिकार है, उसके आन्दोलनके नेता बनने के योग्य वे नहीं हैं। उनके भारत लौटने से पहले, मैं कामके प्रसंगमें कई बार उनसे मिल चुका था, और मुकदमेबाजीसे बचने तथा झगड़ोंको न्यायपूर्वक सुलझा देने के लिए वे जैसी चिन्ता प्रकट करते थे, उसका मुझपर बड़ा प्रभाव पड़ा था। यहाँतक कि उनके विषयमें मेरी सम्मति बड़ी ऊँची बन गई थी। मैं यह सब जान-बूझकर लिख रहा हूँ, और मुझे तनिक भी सन्देह नहीं कि मेरे पेशेके और भी जो लोग श्री गांधीको जानते हैं, वे मेरे इन शब्दोंका समर्थन करेंगे। एक बार एक बड़े न्यायाधीशने कहा था कि अदालतमें सफलता अपने विरोधीको नीचा दिखाने के प्रयत्नसे नहीं, बल्कि अपने-आपको ऐसा योग्य बनाने से मिलती है कि हम विरोधीके बराबर हो जायें या उससे ऊँचे उठ जायें। मेरा अभिप्राय यह है कि राजनीतिमें हमें अपने विरोधीके साथ न्याय करने का, उसकी युक्तियोंका उत्तर युक्तियोंसे देनका यत्न करना चाहिए, उसके सिरपर ईंट या पत्थर मारकर नहीं। मैंने देखा है कि कानूनी मामलों और एशियाई प्रश्न, दोनोंके विवादोंमें, श्री गांधी हमेशा सम्मानास्पद विरोधीका व्यवहार करते हैं। उनके तर्क हमें कितने ही अप्रिय क्यों न लगें, वे औचित्यकी सीमाका उल्लंघन करके वार कभी नहीं करते। इस कारण हमने निश्चय किया था कि वे यद्यपि चाहते तो जहाजपर सप्ताह-भर रुके रह सकते थे, फिर भी अपने शत्रुओंको ऐसा कहने का अवसर न दें कि वे 'डरकर' 'करलैंड' जहाजपर गये हैं; या, वे चोरकी तरह रातको छिपकर डर्बनमें न घुसें, बल्कि सच्चे मर्द और राजनीतिक नेताके समान स्थितिका सामना करें। और मैं कह सकता हूँ कि उन्होंने पूरी उदात्तताके साथ ठीक यही किया भी। मैं उनके साथ केवल एक कानून-पेशा व्यक्तिको हैसियतसे ही गया था, जिससे कि मैं यह प्रकट कर सकें कि श्री गांधी एक सम्मानित पेशेके सम्मानित व्यक्ति हैं और जिससे, उनके साथ जो व्यवहार किया गया, उसके विरुद्ध अपनी प्रतिवादकी आवाज उठा सकूँ। मुझे आशा थी कि मैं मौजूद रहेंगा तो शायद उनका अपमान नहीं होगा। अब सारा मामला आपके पाठकोंके सामने आ गया है —और वे कारण भी जिनसे प्रेरित होकर श्री गांधीने इस प्रकार उतरने का निश्चय किया। वे चाहते तो अपने विरुद्ध भीड़को इकट्ठा होते देखकर केटोके मुहाने में जहाजपर ही रुके रहते। और वे चाहते तो पुलिस-थाने में जाकर शरण ले लेते। परन्तु उन्होंने वैसा कुछ नहीं किया। उन्होंने कहा कि मैं डर्बनके लोगोंके सामने जाने और अंग्रेजोंकी हैसियतसे उनपर भरोसा करने को तैयार हूँ। जुलूसके तमाम मुश्किल रास्तेमें उन्होंने जो वीरता और साहस दिखलाया, उससे ज्यादा और कोई नहीं दिखला सकता था। मैं सारे नेटालको विश्वास दिला सकता हूँ कि वे वीर पुरुष हैं और उनके साथ वीर पुरुषोंका-सा ही व्यवहार करना चाहिए। उन्हें डराकर दबा लेनेका तो प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि मैने जो देखा उससे मुझे निश्चय हो गया है कि यदि उन्हें यह मालूम हो कि सारा टाउन-हॉल उनपर हमला करनेवाला है तो भी वे पीछे दुबक जानेवाले व्यक्ति नहीं हैं। अब, मुझे आशा है। कि आपके सामने सारी कहानी निष्पक्षतासे रखी जा चुकी है। इस पुरुषका डर्बनने