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सम्पूर्ण गांधी वाङ् मय


अगर हमारे भारतीय प्रजाजन भारत छोड़ने के क्षणसे ही अपने ब्रिटिश प्रजाके अधिकारोंको खो देते हैं और विदेशी सरकारें उनके साथ स्थानच्युत तथा बहिष्कृत जातियों-जैसा व्यवहार कर सकती हैं, तो हमारा अपने भारतीय प्रजाबन्धुओंको यह समझाना एक मखौल-मात्र होगा कि वे विदेशी व्यापारमें लगें।

एक अन्य लेख में उसने कहा है :

यह विषय तो सद्भावका और "मैत्रीपूर्ण वार्ताओं" के लिए प्रभावको काममें लानेका है। श्री चेम्बरलेनने ऐसी वार्ताओंकी व्यवस्था करने का वादा किया है, हालांकि उन्होंने शिष्टमंडलको चेतावनी दी है कि वार्ताएँ उकता देनेवाली हो सकती हैं, और सरल तो वे होंगी ही नहीं। जहाँतक केप कॉलोनी और नेटालका सम्बन्ध है, चूंकि औपनिवेशिक कार्यालय उनके साथ ज्यादा अधिकारसे बातें कर सकता है, इसलिए सवाल कुछ हदतक आसान हो गया है।

यह मामला उनमें है जो सरकारके सीधे जवाब देनेके मामलोंमें सबसे व्यापक प्रश्न उठानेवाले होते हैं। हम एक विश्वव्यापी साम्राज्यके केन्द्राधिकारी है। और जमाना ऐसा है, जिसमें आवागमन सरल है, और दिन-दिन समय तथा व्यय दोनोंकी दृष्टिसे सरलतर होता जाता है। साम्राज्यके कुछ भाग घने हैं, दूसरे अपेक्षाकृत खाली हैं। और भीड़भाड़के क्षेत्रोंसे कम आबादीके क्षेत्रोंमें लोग लगातार गमन कर रहे हैं। साम्राज्यके जो प्रजाजन हमसे या किसी खास क्षेत्रके लोगोंसे रंग, धर्म और आदतोंमें भिन्न हैं, वे अगर उस क्षेत्रमें अपनी जीविका उपाजित करने के लिए जायें तो क्या होगा? जाति-द्वेष और विरोध-भावनाओंको, व्यापारको ईर्ष्याको, प्रतिद्वन्द्विताके भयको कैसे नियन्त्रित किया जायेगा? उत्तर निश्चय ही यह होगा कि औपनिवेशिक कार्यालयमें प्रबुद्ध नीतिका अवलम्बन करके।

भारतीयोंको आवश्यकताएं कम हैं। भारतकी आबादीमें लगातार वृद्धि हो रही है। इसलिए एक हदतक वहाँसे विदेश-प्रवास अनिवार्य है। और इस प्रवासमें वृद्धि भी होगी। हमारे आफ्रिकावासी गोरे बन्धु-प्रजाजनोंका यह समझ लेना बहुत जरूरी है कि भारतसे इस प्रवाहके आते रहने की तमाम सम्भावनाएँ मौजूद हैं, ब्रिटिश भारतीयोंको केपमें जाकर जीविका-निर्वाह करने का पूरा अधिकार है, और जब वे यहाँ आयें तब सम्पूर्ण साम्राज्यके सामान्य हितको दृष्टिसे उनके साथ अच्छा व्यवहार होना चाहिए। सचमुच यह भयकी बात है कि साधारण उपनिवेशी, वे कहीं भी बसे हों, अपनी रक्षा करनेवाले महान् साम्राज्य के हितोंकी अपेक्षा अपने तात्कालिक हितोंको चिन्ता बहुत अधिक करते हैं। और उन्हें हिन्दुओं या पारसियोंको अपना प्रजा-बन्धु स्वीकार करने में कुछ कठिनाई मालूम होती है। औपनिवेशिक कार्यालयका कर्त्तव्य उन्हें समझाना