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सम्पूर्ण गांधी वाङ् मय

बाद बाहर पानेपर गिरफ्तार करना बन्द कर दिया है। अभी कुछ ही महीने हुए, इस कानूनके अन्तर्गत एक तमिल शिक्षक, एक तमिल शिक्षिका और एक तमिल रविवासरी स्कूल-शिक्षकको गिरफ्तार करके हवालातमें रखा गया था। अदालतमें उन सबको न्याय जरूर मिला, किन्तु यह तो बड़े अल्प समाधानकी बात थी। तिसपर भी उसका परिणाम यह हुआ है कि नेटालके नगर-निगम कानूनमें ऐसे परिवर्तनकी चीख-पुकार मचा रहे हैं, जिससे कि ऐसे भारतीयोंका अदालतोंसे बिलकुल निर्दोष निकल जाना असम्भव हो जाये।

डर्बनमें एक उपनियम है, जिसके अनुसार गैर-गोरे नौकरों का नाम सरकारी रजिस्टरोंमें दर्ज कराना जरूरी है। यह नियम काफिरोंके लिए, जो काम करते ही नहीं, जरूरी हो सकता है; और शायद जरूरी है भी। भारतीयोंके लिए तो बिलकुल ही व्यर्थ है। मगर नीति यह है कि जहाँ भी हो सके, भारतीयोंको काफिरोंकी ही श्रेणीमें रखा जाये।

नेटालमें जो दुःख-दर्द है उसकी सूची यहीं पूरी नहीं हो जाती। अतएव, अधिक जानकारीके लिए मैं जिज्ञासुओंको 'हरी पुस्तिका' पढ़ने की सलाह दूँगा।[१]

परन्तु, सज्जनो, आपको हाल ही में नेटालके एजेंट-जनरलने बताया है कि नेटालमें भारतीयोंके साथ जितना अच्छा व्यवहार किया जाता है उससे ज्यादा अच्छा और कहीं नहीं होता; अधिकतर गिरमिटिया भारतीय वापसी टिकटका फायदा नहीं उठाते, यही मेरी पुस्तिकाका सबसे अच्छा जवाब है; और, रेलवे तथा ट्रामगाड़ियोंके कर्मचारी भारतीयोंके साथ पशुओं-जैसा व्यवहार नहीं करते और न अदालतें ही उन्हें न्यायसे वंचित रखती हैं।

एजेंट-जनरलके प्रति अधिकतम सम्मान रखते हुए भी, उनके पहले कथनके बारेमें मैं इतना ही कह सकता हूँ कि रातको ९ बजेके बाद परवाने के बिना बाहर निकलने पर जेलमें डाल दिया जाना; एक स्वतन्त्र देशमें नागरिकताका नितान्त प्राथमिक अधिकार न दिया जाना; गुलामोंकी या, ज्यादा स्वतन्त्र गिरमिटियोंकी अपेक्षा ऊँची हैसियत देनेसे इनकार किया जाना; और ऊपर बताये हुए अन्य प्रतिबन्धोंका लगाया जाना—ये सब अगर अच्छे व्यवहारके उदाहरण हैं तो 'अच्छे व्यवहार के सम्बन्धमें एजेंट-जनरल की धारणा बहुत विलक्षण होनी चाहिए। और अगर दुनियाभरमें भारतीयोंके साथ किये जानेवाले व्यवहारमें यही सर्वोत्तम है तो, साधारण बुद्धिके अनुसार, दुनियाके दूसरे हिस्सोंमें और यहाँ भारतीयोंका भाग्य निस्सन्देह बहुत ही दुःखमय होना चाहिए। बात यह है कि एजेंट-जनरल श्री वाल्टर पीसको सरकारी चश्मेसे देखना पड़ता है और उन्हें प्रत्येक सरकारी चीज खुशनुमा दिखाई देना स्वाभाविक ही है। कानूनी निर्योग्यताएँ नेटाल-सरकारके कार्यकी निन्दक हैं, और एजेंट-जनरलसे अपने-आपकी निन्दा करने की तो अपेक्षा ही कैसे की जा सकती है? अगर वे या

  1. यहाँ से लेकर "भारतीय समाजकी समृद्धिशीलता", पृ॰ ८८ से शुरू होनेवाले अनुच्छेदके लगभग ६ पृष्टोंके अन्ततककी समाग्री 'हरी पुस्तिका' के द्वितीय संस्करण में शामिल की गई थी। देखिए पृ॰ २८ की पाद-टिप्पणी भी।