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सिख जागृति


इस तरह धर्मके लिए, धर्मके नामपर डेढ़ सौसे भी अधिक सिखोंने अपने प्राण उत्सर्ग कर गुरुद्वारेपर अपना स्वामित्व सिद्ध कर दिया।

मैंने एक सरदारसे पूछा, आप इस बलिदानकी हिन्दुस्तानके लिए क्या कीमत आँकते हैं?" उसने कहा, "इस बलिदानसे कोई अकेले सिखोंकी ही ताकत नहीं बढ़ी है, वरन् समस्त हिन्दुस्तानकी बढ़ी है। और स्वराज्य मिलनेसे पहले हमें ऐसे अनेक बलिदान देने पड़ें तो इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं होगी। इस बलिदानने सारी दुनियाको बता दिया है कि हिन्दुस्तान में कैसे वीर व्यक्ति पड़े हैं।" इस सरदारकी बात सही है।

जिस दिन इन शहीदोंका अग्नि-संस्कार हुआ, उस दिन मौलाना अबुल कलाम आजाद और में सिखोंकी एक सभामें शामिल हुए थे।[१] वहाँ उन्होंने एक अत्यन्त महत्वपूर्ण वाक्य कहा, "एक सिख गुरुद्वारेको डेढ़ सौ सिखोंने अपने रुधिरसे शुद्ध किया है। हिन्दुस्तान रूपी गुरुद्वारेको शुद्ध करनेके लिए अगर हम सबको शहीद होना पड़े तो इसमें क्या आश्चर्य है?"

आइये हम इन भाइयोंके बलिदानको जरा गहराईसे देखें। यदि उनका उद्देश्य बल-प्रदर्शनके द्वारा गुरुद्वारेपर कब्जा करनेका था तो उसमें उनका हेतु शुद्ध लेकिन साधन अशुद्ध माना जायेगा। लेकिन चूँकि वे स्वयं ही मृत्युको प्राप्त हुए इसलिए संसार हमेशा उनकी बहादुरीका बखान तो करेगा ही।

यदि वे सिर्फ 'दर्शन' करनेके इरादेसे ही गये हों लेकिन अपना बचाव करते हुए मृत्युको प्राप्त हुए हों तो भी जगत् उनकी बहादुरीकी स्तुति करेगा और उनके साधनों के बारेमें शंका नहीं करेगा। लेकिन यदि वे सिर्फ 'दर्शन'के हेतुसे ही गये हों और अपने पास हथियार होनेके बावजूद उन्होंने उनको उठाए बिना चुपचाप मृत्युका आलिंगन किया हो तो दुनियाके सामने शान्तिमय क्षात्रबलका उन्होंने एक ऐसा उदाहरण पेश किया है जिसकी आधुनिक कालमें कोई मिसाल नहीं है। अगर ऐसा ही हुआ हो तो इस युगमें यह बात सिर्फ हिन्दुस्तान में ही हो सकती है। सन्तोषजनक बात तो यह है कि जिन-जिन सिखोके साथ मैंने इस सम्बन्धमें बात की है उनमें लगभग बिना किसी अपवाद के प्रत्येक सिखकी यही मान्यता है कि ये डेढ़ सौ बहादुर व्यक्ति 'दर्शन' करनेके लिए ही गये थे और शस्त्र उठानेकी स्थितिमें होनेके बावजूद, चूँकि वे शान्तिसे ही काम लेतेकी प्रतिज्ञा करके वहाँ गये थे, उन्होंने शस्त्र नहीं उठाये और मृत्युको प्राप्त हुए।

अगर यह बात सच है तो यह अहिंसामय असहयोगका एक परिपूर्ण उदाहरण है और मेरी दृढ़ मान्यता है कि उसका हमारे स्वराज्यके आन्दोलनपर बहुत महत्वपूर्ण असर होगा।

सरकारको लाहौरमें जब यह खबर मिली तब उसने तुरन्त ही खास ट्रेनसे सेना भेजी और महन्त तथा उसके जो साथी गुरुद्वारेमें मिले उन सबको कैद कर लिया। दूसरे अथवा तीसरे दिन गुरुद्वारेका कब्जा उसने अकाली दलकी समितिको दे दिया।

  1. श्री में, २५ फरवरी, १९२१ को।