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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


तथापि मेरे साथी उतने संयमका पालन नहीं करते और मुसलमान तथा अपनेसे इतर वर्णोंके लोगोंके यहाँ शुद्ध रीतिसे पका हुआ खाद्य पदार्थ भी ले लेते हैं। ऐसा करनेमें वे जाति बहिष्कारकी जोखिमको अपने सिरपर लेते हैं, लेकिन इससे कोई उनके हिन्दू होनेके अधिकारको नहीं छीन सकता। मेरे आश्रमके लोग संन्यासियोंपर लागू होनेवाले कुछ नियमोंका पालन करते हैं। वहाँ हिन्दू-धर्मका अनुकरण करनेवाली नवीन जाति अथवा नवीन व्यवहारका——जो इस युगधर्मके अनुकूल हो——निर्माण हो रहा है। इस कार्यको मैं एक प्रयोग मानता हूँ जो फलीभूत होनेपर अनुकरणीय होगा और निष्फल होनेपर इससे किसीको कोई नुकसान नहीं पहुँचेगा, क्योंकि प्रयोगका मूल आधार संयम है। उद्देश्य यह है कि सेवाधर्मका आसानीसे पालन किया जा सके और आज जब कि धर्म सिर्फ खाने-पीनेकी बातों तक ही सीमित रह गया है उस रिवाजको उसका उचित और गौण स्थान दिया जा सके।

अब रही अस्पृश्यता। अस्पृश्यताके विचारकी उत्पत्ति कब हुई, इसके बारेमें निश्चित रूपसे कुछ नहीं कहा जा सकता; मैं भी सिर्फ अनुमान ही लगा सकता हूँ। और वह सच भी हो सकता है या झूठ भी; लेकिन अस्पृश्यता अधर्म है——यह तो एक अन्धा भी देख सकता है। जिस तरह रूढ़ दुर्बुद्धि हमें अपनी आत्माको नहीं पहचानने देती, उसी तरह हम उसके कारण अस्पृश्यतामें निहित अधर्मको भी नहीं देख पाते। किसीको भी पेटके बल चलाना, गाँवसे बाहर अलग रखना, वह मरता है या जीता इसकी परवाह न करना, उसे जूठा भोजन देना धर्म कदापि नहीं हो सकता। पंजाबके जिस अन्यायके विरुद्ध हम आवाज उठा रहे हैं उससे कहीं अधिक अन्याय हम अन्त्यजोंपर करते हैं। अन्त्यज पड़ोसमें रह नहीं सकते, अन्त्यज अपनी जमीन नहीं रख सकते, अन्त्यजोंको देखते ही हम 'अलग रहो, छूना नहीं' चिल्ला उठते हैं, अन्त्यजको अपनी गाड़ीमें बैठनकी हम अनुमति नहीं देते——यह सब हिन्दू-धर्म नहीं, यह तो डायरशाही है। अस्पृश्यतामें संयम नहीं है; माँ मैला उठानेके बाद स्नान किये बिना किसीको नहीं छूती, यह उदाहरण अस्पृश्यताका समर्थन करनेके लिए दिया गया है। लेकिन वहाँ तो माँ स्वयं किसीसे छू जाना नहीं चाहती। अगर भंगीके सम्बन्धमें भी हम इसी नियमका पालन करें तो किसीको कोई एतराज न हो। भंगी आदिको अस्पृश्य मानकर हम गन्दगीको सहन करते हैं और रोगोंको उत्पन्न करते हैं। यदि हम अस्पृश्यको स्पृश्य मानें तो हम अपने समाजके उस अंगको साफ रखना सीख जायेंगे।

भंगियोंके घरोंको तो मैंने अनेक वैष्णवोंके घरोंसे साफ पाया है। उनमें से कुछेक लोगोंकी सत्यवादिता, सरलता और दया आदिको देखकर मैं चकित रह गया हूँ। मेरी मान्यता है कि हिन्दू-धर्ममें अस्पृश्यता रूपी कलिने प्रवेश किया इसीसे हम पतित हो गये और उसके परिणामस्वरूप गोमाताकी रक्षा करनेमें भी समर्थ नहीं बचे। जबतक हम इस डायरशाहीसे मुक्त नहीं होते तबतक अंग्रेजी डायरशाहीसे मुक्त होनेका हमें कोई अधिकार नहीं।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ६–२–१९२१