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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

घृणा घूमधामकर उसीके पास लौट आती है और इसलिए उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता। वह उसे पवित्र बनाती है और जिसके प्रति घृणा व्यक्त की जाती है उसे इस बातकी प्रेरणा देती है कि वह अपने-आपको सुधारे, अपने गलत आचरणसे विमुख हो। इस तरह कोई असहयोगी असहयोगका प्रारम्भ तो एक शत्रुके रूपमें ही करता है, किन्तु अन्ततः उसका रूप मित्रका बन जाता है। कोई व्यक्ति कोई सही काम किस भावसे करता है, इससे क्या फर्क पड़ता हैं? सही काम तो सही ही है, चाहे वह किसी नीतिके वश किया जाये अथवा वह स्वयं में एक उद्देश्य हो। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि अगर कोई कदम नीतिके वशीभूत होकर उठाया जाता है तो उसका वांछित परिणाम न निकलनेपर उसके वापस ले लिये जानेका भी खतरा रहता है। लेकिन ऐसा खतरा रहता है, इस तथ्यको स्वयं किसी सत्कार्यकी नैतिकता- के विरुद्ध कोई दलील नहीं माना जा सकता।

पत्र-लेखकने जो समाधान दिया है, वह असम्भव है। वे चाहते हैं कि असहयोगी पहले पूर्णताको प्राप्त करें। लेकिन वे भूल जाते हैं कि अगर हम पूर्ण होते तो असहयोगकी कोई जरूरत ही नहीं पड़ती, क्योंकि तब कोई भी व्यक्ति बुराईके साथ सहयोग करता ही नहीं। असहयोग अपने-आपको पवित्र बनाने, पूर्ण बनानेका एक प्रयत्न है। और अधिकांश लोग शुद्धीकरणके मार्गपर विश्वासके कारण चलते हैं, ज्ञानके कारण नहीं। दूसरे शब्दोंमें, एक आत्मत्यागी नेताका अनुसरण करनेवाले स्वार्थी असहयोगी अन्त में जो कुछ कर दिखायेंगे वह अच्छा ही होगा; क्योंकि उनके कामोंसे असहयोग आत्मत्यागका एक सिद्धान्त ही सिद्ध होगा। अंग्रेजोंकी मुख्य कठिनाई तो सचमुच यह मानने में है कि उनका शासन भारतके लिए एक खालिस बुराई है; अर्थात् उसने हर महत्वपूर्ण मामलेमें भारतका अकल्याण किया है। भारत आज आर्थिक दृष्टिसे पहलेसे विपन्न है, उसके पौरुषका ह्रास हुआ है, उसकी आध्यात्मिकताका क्षय हो गया है और उसके बेटोंमें अपनी रक्षा करनेकी शक्ति भी नहीं रह गई है। बुराईके साथ किसी तरहका सम्बन्ध रखना पाप है। अच्छाई और बुराईका, ईश्वर और शैतानका, कहीं कोई मेल नहीं हो सकता। पत्र-लेखक महोदय मुझसे थोड़ा विचार करनेको कहते हैं। विचार तो मैंने तीस वर्षों-तक किया और आखिर इसी अन्तिम निष्कर्षपर पहुँचा कि अपने वर्तमान रूपमें अंग्रेजी शासन भारतके लिए अभिशाप सिद्ध हुआ है। मैं कहूँगा, अंग्रेज लोग ही तनिक रुककर विचार करें कि उनकी आँखोंके आगे ही यह क्या हो रहा है। वे तनिक अपने ही भीतर झाँककर देखें। क्या वे मुझसे उस सरकारसे सहयोग करनेको कहेंगे जिसने भारतके मुसलमानों के साथ धोखेबाजी की है और पंजाबमें मानवताकी हत्या की है?

अंग्रेज लोग जलियाँवाला बागके नर-संहारको निर्णयकी भूल-भर कहना छोड़ें; और जब उनके प्रधान मन्त्री यह कहें कि उन्होंने भारतके मुसलमानोंको दिये गये अपने गम्भीर वचनको नहीं तोड़ा है[१]तो उनके इस कथनपर विश्वास न करें। हमारा उद्देश्य न्यायसंगत है और उतना ही न्यायसंगत है उसे प्राप्त करनेका हमारा साधन। अल-

  1. देखिए खण्ड १७, पृष्ठ ४४८-४९ और ४९८५०२।