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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अपना-अपना हिस्सा पूरी तरह बँटायें। असहयोग-सम्बन्धी प्रस्तावकी तफसीलपर मैं बादमें लिखूँगा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ५-१-१९२१
 

१०४. नैतिक मूल्य

नीचे एक अंग्रेज मित्र के पत्रका अंश दे रहा हूँ। अंग्रेज मित्रोंके पत्र पाकर मुझे बड़ी खुशी होती है। मैं जानता हूँ कि बहुत से ऐसे ईमानदार अंग्रेज हैं जो सहानुभूतिके साथ असहयोग आन्दोलनपर ध्यान देकर उसे समझने की कोशिश कर रहे हैं; और अगर सम्बन्धित नैतिक प्रश्नोंके बारेमें उनके मन में कोई शंका न रह जाये तो वे खुशी के साथ इसमें हाथ बँटा सकते हैं। यह पत्र इसी बातका उदाहरण है।

मेरा खयाल है, आप नैतिक शक्तिके बलपर भारतमें स्वराज्य स्थापित करनेका प्रयत्न कर रहे हैं और आपको भरोसा है कि आत्म-त्यागसे यह नैतिक शक्ति प्राप्त की जा सकती है। मैं इतना निवेदन कर देना चाहूँगा कि विचार तो एकदम उत्कृष्ट है। लेकिन क्या इसमें यह आशंका ही नहीं है कि आप जिस साधनको――अर्थात् असहयोगको―― अपनाकर चल रहे हैं, अगर उसका प्रयोग हर सम्बन्धित व्यक्तिके विशुद्ध निःस्वार्थ भावसे काम करनेको तैयार होने से पहले किया गया तो अन्ततः आपको निराश होना पड़ेगा? यदि ध्येय नैतिक सफलता हो तो उस लक्ष्यतक पहुँचनेका साधन भी वैसा ही होना चाहिए।
मैं भी बड़ी आतुरतासे उस दिनकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ, जब समस्त भारत ही नहीं, समस्त मानव-जाति नीचे बताये गये ढंगके स्वराज्यका उपभोग करेगी:
मानव-जाति सृष्टिके पशुता और नैतिकताके संगमस्थानपर खड़ी है। स्रष्टाने उसे अपनी मर्जीका मालिक बनाया है। वह अपने भौतिक ढ़ाँचे, यानी शरीर, और अपने नैतिक स्वरूप यानी चारित्र्यको माँगोंको तोल सकता है और निर्णय कर सकता है कि वह इनमें से किन्हें स्वीकार करे। इस तरह वह अपने चरित्रके माध्यमसे सृष्टिके आदि कारण, अर्थात् परमात्माके अमूर्त स्वरूपको ससीम (अर्थात् चरित्र) के भीतर व्यक्त कर सकता है। जब मानव-जातिका प्रत्येक घटक, प्रत्येक व्यक्ति, अपने प्रत्येक विचार, वाणी और कर्ममें नैतिक मूल्यों को प्राथमिकता देना सीख जायेगा और बराबर नैतिकताकी माँगोंको हो प्राथमिकता देगा, तो स्पष्टतः उसका परिणाम आत्म-त्याग होगा। नैतिकताको माँगोंको प्राथमिकता देनेकी बात इसलिए कही कि सृष्टिकी परम्परामें