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उनसे यह बात स्पष्ट हो जायेगी। (देखिए शीर्षक ४३, ६८, १२६, १४४, १५९,१७२, १७६, २२६ और २७४)

इस अवधिमें विद्यार्थियोंके प्रति गांधीजीकी अपील और अस्पृश्यता- निवारणकी दृष्टिसे किये गये आन्दोलन आधुनिक और परम्परावादी, दोनों ही प्रकारके नेताओंको पसन्द नहीं आये। यद्यपि मदनमोहन मालवीय भी गांधीजीकी तरह भारतीय जीवन पद्धतिके बड़े प्रेमी थे, तथापि उन्हें ऐसा लगता था कि प्रचलित शिक्षा प्रणालीसे राष्ट्रीय जागृति साधी जा सकती है और उन्होंने अपने इसी विश्वासके कारण बरसों अथक परिश्रम करके बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयकी स्थापना भी की थी। गांधीजी ने जब यह कहा कि हिन्दू विश्वविद्यालय सरकारी नियमोंके अनुसार न चले, तो माल- वीयजीको उनके इस कथनके निर्दोष होनेमें बड़ा सन्देह उत्पन्न हुआ। उन्होंने इसे गलत कहा। गांधीजीने बनारसमें विद्यार्थियोंके सामने जो भाषण दिया (पृष्ठ २४-३१) उसमें उन्होंने इस मतभेदकी विस्तृत चर्चा की और यह भी कहा कि विद्यार्थी श्री मालवीयजीकी बातको बहुत ध्यानके साथ सुनें और यदि उन्हें ऐसा लगे कि उनकी आत्मा भी पापपूर्ण सत्ताके सहयोगसे विरत होनेकी दिशामें उन्हें प्रेरित कर रही है, तो वे मेरी बात सुनें, अन्यथा नहीं। यह सिद्ध करनेके लिए कि वे जो कुछ कर रहे हैं, वह उनकी आत्माकी पुकार है, उन्हें देशकी परम्पराके अनुकूल अपने विद्यार्थी जीवनमें आत्मसंयमका पालन करना पड़ेगा। विद्यार्थियोंकी प्रत्येक सभामें उन्होंने अनुशासन और बड़ोंके प्रति सम्मानपूर्ण आचरणकी आवश्यकतापर जोर दिया और कड़ेसे-कड़े शब्दोंमें उन विद्यार्थियोंकी भर्त्सना की जो गांधीजीसे मतभेद रखनेवाले वक्ताओंकी सभा में गड़बड़ी पैदा करनेकी कोशिश करते थे। तथापि गांधीजीके आलोचकोंको इस सबसे सन्तोष नहीं हुआ। यहाँतक कि सी० एफ० एन्ड्रयूज-जैसे मित्रके सन्देहको भी वे दूर नहीं कर पाये। श्री सी० एफ० एन्ड्रयूज ऐसा मानते थे कि गांधीजी तत्कालीन शिक्षाका बहिष्कार करके विज्ञान और सर्वसामान्य शिक्षाको नुकसान पहुँचा रहे हैं। गांधीजीने हरचन्द कहा कि उनका कदापि ऐसा इरादा नहीं है। (पृष्ठ ३६३)

फिर भी लोगोंके मनमें यह बात घर करती चली गई कि गांधीजी आधुनिक प्रगतिके खिलाफ हैं। उनकी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज्य’ जो दक्षिण आफ्रिकामें १९०९ में छपी थी और जिसका अंग्रेजी अनुवाद ‘इंडियन होम रूल’ के नामसे भी प्रकाशित हो चुका था, जिसे विरोधी आलोचकोंने अब जाकर देखा और उन्होंने उसको आधार बनाकर यह सिद्ध करना शुरू किया कि गांधीजी दुनियाको वापस मध्ययुगमें ले जाना चाहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि गांधीजी आधुनिक पाश्चात्य सभ्यताके खिलाफ थे, किन्तु इसका कारण था उसका भौतिक साधनोंके पीछे जरूरतसे ज्यादा पागल रहना। वे इस सभ्यताके खिलाफ इसलिए नहीं थे कि वह पश्चिमकी है। और उन्होंने कई बार इस बातको समझाकर कहनेकी कोशिश भी की। श्री नरसिंहरावके नाम लिखा हुआ उनका पत्र (पृष्ठ १८१-८५) उनकी इस दृष्टिको स्पष्ट करता है और बड़ी ही विनम्रता और ईमानदारी के साथ अपील करता है कि उनकी बातको ठीक-ठीक समझा जाये। उन्होंने एक ओर यह कहा कि “सबसे सच्चा स्वराज्य तो अपनेपर शासन करना है― वह मोक्ष या निर्वाणका पर्यायवाची है...” (पृष्ठ ८२) और यह भी कहा कि वे