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२६८. सिख लोग

'ट्रिब्यून' के प्रतिभाशाली सम्पादक, बाबू कालिनाथ रायको एक सिख पाठकने[१]एक पत्र प्रकाशनार्थं भेजा था। उन्होंने कृपापूर्वक उसका एक अंश मेरे विचार जाननेके लिए भेजा है, जो इस प्रकार है :

कुछ सिख पिछली २१ अक्तूबरको महात्मा गांधीसे सिख जनतामें उनके प्रचारके दुष्प्रभावके सम्बन्धमें बातचीत करने गये थे, उन्हें गांधीजीने बताया कि असहयोगका मेरा प्रचार अहिंसात्मक है; तथापि आन्दोलनके दिनोंमें हिंसात्मक बन जानेकै लक्षण दिखाई दे रहे हैं। मैं सिखोंसे आग्रहपूर्वक कहूँगा कि वे वाणी और कर्म, दोनोंसे अहिंसक बने रहें; परन्तु यदि मेरी चेतावनीके बावजूद सिख समाज हिंसक बन जाता है और यदि ब्रिटिश अधिकारी उन्हें ताकतसे कुचलते हैं तो मुझे दुःख नहीं होगा। तब हिन्दुओं या मुसलमानों को मैं उनकी मददके लिए नहीं आने दूँगा और उन्हें ध्वंस हो जाने दूँगा; क्योंकि ऐसे तत्त्वकी आहुति और पूर्ण समाप्ति से ही अहिंसात्मक असहयोगका प्रचार सफल होगा जिसके हिंसापूर्ण हो जानेकी सम्भावना है।

उपर्युक्त अंश उद्धृत करनेके बाद बाबू कालिनाथ राय कहते हैं :

लेखक यह भी कहता है कि ये शब्द, जैसे आपने प्रयुक्त किये थे, ज्योंकेत्यों सिख लोगकी एक सभामें पढ़कर सुनाये गये थे और यद्यपि आप वहाँ उपस्थित थे आपने रिपोर्टका प्रतिवाद नहीं किया था। मुझे यह भी सूचित किया गया है कि पत्र लाहौरके 'सिविल ऐंड मिलिटरी गज़ट' में प्रकाशित भी हो चुका है।

मैं समझता हूँ कि उपर्युक्त बातें कहनेका उद्देश्य मेरे दोष दिखाना है। जिस बातचीतका उल्लेख किया गया है वह काफी लम्बी, लगभग एक घंटेतक, चली थी। बातचीतके दौरान मैंने जो-कुछ कहा था उसे सन्दर्भ से हटाकर, अन्य सन्दर्भोंके साथ मिलाकर कुछ इस तरह दिया गया है मानो मैंने उसी ढंग और उसी क्रमसे वे बातें कही हों। तथ्य यह है कि बातचीत कभी हिन्दुस्तानी और कभी अंग्रेजीमें होती थी और वह शिष्टमण्डलके उन सदस्योंको सम्बोधित थी जो मुझसे यह आग्रह करने आये थे कि मैं सिखोंके सामने असहयोगका प्रस्ताव न करूँ खासकर उस समय जब कि स्वयं मैंने लीगके कुछ सदस्योंका हिंसात्मक रुख देखा है। प्रश्नोंका उत्तर देते समय मैंने यह कहा था कि मुझे सभामें उपस्थित कुछ सिखोंका रुख पसन्द नहीं आया और उससे मुझे दुःख भी हुआ है। मैंने उन्हें यह भी बताया कि यदि कहनेकी अनुमति दी जाये तो मैं श्रोताओंको हिंसाके खतरेके प्रति सावधान करना चाहूँगा। जो सरकारसे सहयोग कर रहे हैं उन्हें हिंसाके द्वारा असहयोगके लिए बाध्य करनेकी कोशिश

  1. सेवारामसिंह।