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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जगत्का विरोध कर सकते हैं। यदि मैं ऐसा न कहूँ तो मैं धर्मके जिस स्वरूपको समझता हूँ वह लुप्त हो जायेगा। यदि आप धर्मका विकास करना चाहते हों तो जिस समय हृदगत भावनाएँ स्फुरित हो उठें उस समय इस यज्ञमें माँ-बाप, सगे-सम्बन्धियों आदि सब लोगोंका बलिदान करना पड़े तो करें, जैसे प्रह्लादने अपने पिताका बलिदान दिया। यद्यपि प्रह्लादने अपने पिताके विरुद्ध अँगुलोतक नहीं उठाई तथापि उसने हिरण्यकशिपुके विष्णुका भजन न करनेके उस आदेशको, अपनी अन्तरात्माका विरोधी होनेके कारण, माननेसे इनकार कर दिया और कहा: "इस समय तो मैं जो आपका भी पिता है बल्कि आपके पितामहका भी पितामह है, उसके आदेशको सिरपर चढ़ाऊँगा।"

आपके माँ-बाप आपसे स्कूल न छोड़नेके लिए कहते हैं जब कि मैं आपको स्कूल छोड़ने की सलाह देता हूँ। मैं आपसे जो कह रहा हूँ यदि उसे आप अपने धर्मके रूपमें पहचान सकें तो आप अपने माता-पितासे विनयपूर्वक कहें कि हम इन स्कूलोंमें नहीं जा सकते। यदि आपकी भावनाएँ सचमुच उद्वेलित हो उठी हैं तो यह आपका कर्त्तव्य हो जाता है। मैं ऐसी सलाह किसलिए दे रहा हूँ? मैं जो कह रहा हूँ वह दस-बारह वर्षके विद्यार्थियोंपर लागू नहीं होता। उन्हें अभी स्वतन्त्र रूपसे विचार करनेका अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता। उन्हें तो माता-पिता के आदेशानुसार ही चलना चाहिए। हमारे शास्त्रोंका कथन है कि पाँच वर्षतक बालकको लाड़-प्यारसे रखा जाये, दस वर्षतक उसकी ताड़ना की जाये, ताड़नाका अर्थ लकड़ीसे मारना नहीं, ज्ञान सहित उसे समझाना-बुझाना है। और फिर सोलह वर्षका हो चुकनेपर पुत्रको अपना मित्र समझा जाये। मैं नवयुवकोंको ऐसी सलाह किस लिए देता हूँ? अनेक वर्षोंसे मैं सरकार के साथ, ब्रिटिश साम्राज्यके साथ सहयोग करता आया हूँ। मुझसे अधिक अच्छा सहयोग किसीने नहीं किया होगा, क्योंकि उससे अधिक सहयोग देना लगभग असम्भव था। मेरे इस सहयोगमें कुछ भी स्वार्थ न था। मुझे अपने भाई अथवा अपने पुत्रोंको नौकरी नहीं दिलवानी थी, मुझे किसी तरहकी सम्मानित पदवी अथवा ओहदा प्राप्त करनेकी कोई अभिलाषा न थी। इसलिए सरकारके साथ मेरा सम्बन्ध बिलकुल निर्मल था। मैं सहकार धर्मको अपना कर्त्तव्य समझकर निभाता था। मैं इस सरकारका सदैवसे सम्मान करता आया हूँ सो उसकी दण्ड देनेकी शक्तिसे भयभीत होकर नहीं; बल्कि यह समझकर कि शासनका सम्मान करना मेरा कर्त्तव्य है। इसका एक उदाहरण मैं आपके सामने प्रस्तुत करूँगा।

जिस समय मेरे यहाँ तीसरे बच्चेका जन्म हुआ उस समय चेचकका टीका लगानेका सवाल उठा। मैं मानता हूँ कि चेचकका टीका लगवाना ठीक नहीं है; तथापि १८९७ में मैंने बच्चेको चेचकका टीका लगवाया। यदि बालकको अमुक समयतक टीका न लगवाया जाये तो दण्ड दिया जाता है। यह कानून तो केवल विधि-पुस्तकमें ही है। इसे जितनी मान्यता दी जानी चाहिए जनता उतनी मान्यता प्रदान नहीं करती। मुझे लगा कि या तो मुझे इस कानूनका सम्मान करना चाहिए अथवा सरकारसे फैसला कर लेना चाहिए अर्थात् इसकी सादर अवज्ञा करनी चाहिए, क्योंकि यह