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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


मुझे उम्मीद है कि जो लोग असहयोगके विरुद्ध हैं वे अपने पूरे दल-बल सहित परिषद्में भाग लेंगे और अपने तर्कोको दृढ़तापूर्वक परिषद् के सम्मुख प्रस्तुत करेंगे, तथा इसी तरह असहयोग के समर्थक लोग भी पूरी तैयारी से आयेंगे——मैं ऐसा मान लेता हूँ। श्रोतृगण विनयपूर्वक, बिना किसी शोरके तथा मर्यादामें रहकर दोनों पक्षोंकी दलीलोंको सुनें। यह ध्यान रखना दोनोंका कर्त्तव्य है। ऐसी परिषदोंसे स्पष्ट मत प्राप्त करनेके लिए मैंने जो कहा है वह अनिवार्य शर्त है। ब्रिटिश कॉमन्स सभाके जैसे उद्धत व्यवहार, अविनय तथा जंगलीपनका हमें तनिक भी अनुकरण नहीं करना चाहिए। पहलेसे ही एक निश्चित मत बनाकर भाग लेना और विरोधी पक्षके तर्कोंसे भड़क जाना, यह कोई शुद्ध निर्णय करनेका रास्ता नहीं है। इसलिए यदि व्यवस्थापक इस सम्बन्धमें पत्रिकाएँ प्रकाशित करके प्रतिनिधियोंको पहलेसे ही सूचित कर देंगे तो उससे बहुत लाभ होगा तथा परिषद्का काम सुचारु ढंगसे चल सकेगा।

जिस तरह शान्ति आदि बनाये रखना आवश्यक है उसी तरह चतुर सदस्योंका चुनाव करना भी लोगोंका कर्त्तव्य है। सदस्य पर्याप्त संख्यामें भाग लें, यह वांछनीय है।

परिषद् में प्रत्येक वर्ण और धन्धेके प्रतिनिधियोंके होनेकी आवश्यकता है। जनता शिक्षित-अशिक्षितके भेदको छोड़कर दूसरे योग्य धन्धों आदिके सूचक भेद करनेकी पद्धतिको अपनाये, यह उसके लिए अधिक शोभनीय है। अक्लका—व्यवहार-बुद्धिका ठेका कोई साक्षरोंने ही लिया हो, ऐसी बात तो जगत् में दिखाई नहीं देती। किसानोंके सुख-दुःखकी बात जितनी अपढ़ किसान कर सकता है उतना कोई दूसरा भारतीय, जो चाहे कितना ही पढ़ा-लिखा क्यों न हो लेकिन इस क्षेत्रके अनुभव से हीन हो, नहीं कर सकता। इसीसे मैं किसानों, बुनकरों, बढ़इयों, लुहारों, मोचियों आदि की ओरसे अधिकसे-अधिक प्रतिनिधियोंको सम्मिलित हुआ देखना चाहता हूँ। हिन्दुस्तानमें किसानोंकी जितनी आबादी है उसी अनुपातमें जबतक स्वदेशाभिमानी किसान प्रति- निधियोंके रूपमें हमारे राजकीय अथवा समाज-सुधार सम्मेलनोंमें न हों तबतक हमारे देशकी सच्ची उन्नति होनेकी बातको मैं तो असम्भव मानता हूँ। चम्पारन[१]या खेड़ा[२]जिलोंमें कुछ महीनोंमें ही मुझे किसानोंकी दशाका जो अनुभव हुआ है वह कदाचित् असंख्य पुस्तकोंको पढ़ लेने से भी प्राप्त नहीं किया जा सकता था।

और यदि हम किसान आदि वर्गोंकी ओरसे नियुक्त किये गये प्रतिनिधियोंका स्वागत करना चाहते हों तो हमारी परिषदोंमें बहुत ज्यादा कुर्सियोंको तथा आडम्बरको अवकाश नहीं है। हिन्दुस्तानकी आबहवामें कुर्सियाँ, परदे आदि व्यवधान हैं। स्वच्छ भूमिपर दरी बिछाकर हम सभाओंकी कार्यवाही अधिक सरलता तथा बहुत कम खर्चेमें चला सकते हैं, ऐसी मेरी दृढ़ मान्यता है। जबतक हिन्दुस्तानमें तीन करोड़ लोग भूखे मरते हैं, जबतक उससे भी अधिक लोगोंके अंगोंपर वस्त्र नहीं हैं और जबतक उड़ीसामें असंख्य लोग बिना कारण ही हड्डियोंके ढाँचे-से दिखाई देते हैं तबतक, मेरे विचारानुसार, हमें विविध रंगोंसे सज्जित मण्डप बनाने तथा कुर्सियोंपर बैठनेका अधिकार नहीं है।

  1. १९१७ के दौरान।
  2. १९१८ के दौरान।