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तलवारका न्याय

श्रेयस्कर है।" आज भी मेरा दृष्टिकोण यही है। हिन्दुस्तान भयके कारण शस्त्र न उठाये इसकी अपेक्षा यह अधिक आवश्यक है कि वह शस्त्रधारी बन अपनेपर आगत संकटोंका सामना करे। इसी विचारसे प्रेरित हो मैंने बोअर युद्धमें भाग लिया था और जूलू-विद्रोहके समय सरकारकी सहायता की थी। इसी कारण मैंने गत महायुद्धके समय इंग्लैंडकी मदद की थी तथा हिन्दुस्तान आनेपर भरती-कार्यमें जुटा था।

क्षमा, वीरका भूषण है। जिसमें अपमानका बदला लेनेकी शक्ति है वही प्रेम करना [क्षमा करना] जानता है। जिसमें विषयोंका उपभोग करनेकी शक्ति है वही उनपर काबू पाकर ब्रह्मचारी कहला सकता है। चूहा बिल्लीको क्षमा कर ही नहीं सकता। हिन्दुस्तानके लोगोंमें लड़नेकी शक्ति हो और फिर वे न लड़ें तो यह उनके आत्मबलका सूचक होगा।

यहाँ "लड़नेकी शक्ति" का अर्थ समझानेकी आवश्यकता है। लड़नेकी शक्ति अर्थात् मात्र शरीरबल नहीं। जिनमें हिम्मत है वे लड़नेकी शक्ति रखते हैं और जिन्होंने मृत्युके भयको जीत लिया है वे लोग लड़ सकते हैं। बलिष्ठ हब्शी लोगोंको मैंने गोरे लड़कोंसे डरते देखा है, क्योंकि उन्हें गोरोंके रिवाल्वरोंका भय है। मैंने दुर्बल लोगोंको सबल लोगोंके साथ जूझते भी देखा है। अतएव हिन्दुस्तान जिस दिन डरना छोड़ देगा उस दिन उसमें बिना अस्त्रके भी लड़नेकी ताकत आ जायेगी। लड़नेके लिए शस्त्र चलानेमें दक्षता प्राप्त करना आवश्यक है, ऐसा माननेका कोई कारण नहीं। अतः जिस समय मनुष्यको आत्मबलकी प्रतीति हो जाती है उसी समय उसे अपनी लड़नेकी शक्तिका भी भान हो जाता है और इसी कारण मैं मानता हूँ कि सच्चा योद्धा वही है जो मारकर मरनेका नहीं बल्कि मरकर जीनेका मन्त्र साध लेता है।

अहिंसाके अविजित सिद्धान्तकी खोज करनेवाले ऋषि-मुनि स्वयं महान् योद्धा थे। जब उन्होंने आयुध-बलकी तुच्छताको जान लिया और मानव स्वभावका साक्षात्कार कर लिया तभी वे इस हिंसामय जगत् में अहिंसाके सिद्धान्तको देख सके। आत्मा समस्त विश्वपर विजय प्राप्त कर सकती है, आत्माका सबसे बड़ा शत्रु स्वयं आत्मा ही है, उसे जीतनेका अर्थ है, जगत्को जीतनेका बल प्राप्त कर लिया——ऐसी शिक्षा उन्होंने हमें दी थी।

उन्होंने इस सिद्धान्तको ढूँढ निकाला, इस कारण सिर्फ वे लोग ही इसका पालन कर सकते हैं——ऋषि-मुनियोंने यह बात न तो कही, न लिखी और न उन्होंने इसकी शिक्षा ही दी। उन्होंने बताया कि वस्तुतः बच्चोंके सम्बन्धमें भी यही नियम लागू होता है और वे भी इसका पालन कर सकते हैं। केवल साधु-संन्यासी ही इसपर आचरण करते हों, सो बात नहीं, इसका आंशिक पालन सभी करते हैं। और जिस नियमका आंशिक पालन किया जा सकता है, उसका पूर्ण पालन भी किया जा सकता है।

मैं इस नियमपर आचरण करनेमें लगा हूँ। आज अनेक वर्षोंसे मैं ज्ञानपूर्वक इसका पालन करता आया हूँ और हिन्दुस्तानके लोगोंको भी पुकार-पुकारकर इसका पालन करके लिए कहता आया हूँ।