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अमृतसरको अपीलें

अनुकूल होने की आशा होती थी। राजनीतिक मुकदमोंका अध्ययन करके मैंने जो राय बनाई है वह यह है कि ऊँचीसे-ऊँची अदालतोंके फैसले भी राजनीतिक मतामतसे किसी-न-किसी प्रकार प्रभावित हो ही जाते हैं। न्यायाधीशका मन शुद्ध न्यायकी भावनासे ही प्रेरित रहे, इसके लिए अपनाई गई सारी सावधानी ऐन मौके पर व्यर्थ सिद्ध होती है। प्रीवी कौंसिल उन अन्य समस्त मानवीय संस्थाओंकी कमजोरियोंसे मुक्त नहीं हो सकती जो केवल सामान्य स्थितियों में ही ठीक काम कर सकती हैं। यदि यह फैसला लोगोंके पक्षमें होता तो भारत सरकार ऐसी अवर्णनीय अपकीर्तिकी भागी बन गई होती जिससे एक पीढ़ी में भी मुक्त हो पाना उसके लिए मुश्किल होता।

इस फैसलेके राजनीतिक महत्त्वका अनुमान इस तथ्यसे लगाया जा सकता है कि जिस क्षण यह खबर लाहौरमें पहुँची उसी क्षण लाला लाजपतरायका समुचित स्वागत करने के लिए की गई समस्त तैयारियाँ रद कर दी गई और खबर है कि पंजाबकी राजधानी में गहरा शोक छा गया। इसलिए इस फैसलेसे सरकारकी अपकीर्ति और भी बढ़ गई है, क्योंकि सही या गलत, जनता तो यही समझेगी कि जहाँ कोई बड़ा राजनीतिक या प्रजातिगत हितका प्रश्न सामने आ जाता है वहाँ ब्रिटिश संविधानके अन्तर्गत न्याय नहीं मिल सकता।

इस महान् अनर्थसे बचनेका एक ही तरीका है। मानव-मनपर, और विशेषत: भारतीयोंके मनपर, उदार व्यवहारका असर तुरन्त होता है। मुझे आशा है कोई आन्दोलन करने या प्रार्थनापत्र आदि देनेकी नौबत आनेसे पहले ही पंजाब सरकार या केन्द्रीय सरकार मौतकी सजाओंको तत्काल रद कर देगी और यदि सम्भव हुआ तो उसके साथ ही अपील करनेवालोंको भी रिहा कर देगी।

ऐसा करना दो कारणोंसे आवश्यक है और ये दोनों ही कारण समान रूपसे महत्त्वपूर्ण है। पहला तो यह कि सरकारको जनताका विश्वास फिर प्राप्त करना है जिसका उल्लेख में पहले ही कर चुका हूँ। और दूसरा यह है कि शाही घोषणामें[१] कही गई एक-एक बात पूरी करनी है। उस महान् राजनीतिक दस्तावेजमें उन समस्त राजनीतिक अपराधियोंको मुक्त करनेका निर्देश दिया गया है जिनकी मुक्तिसे समाजको कोई खतरा न हो। शायद कोई भी व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि यदि अपील करनेवाले ये इक्कीस व्यक्ति मुक्त कर दिये जायेंगे तो उनसे समाजके लिए किसी भी तरहका खतरा पैदा हो जायेगा। उन्होंने पहले कभी कोई अपराध नहीं किया है। उनमें से अधिकतर सम्भ्रान्त और कानूनके पाबन्द नागरिक माने जाते थे। वे किसी कान्तिकारी संस्थाके सदस्य हों, उनकी कोई ऐसी ख्याति भी नहीं थी। यदि उन्होंने कोई अपराध किया भी था तो वह केवल क्षणिक आवेशमें किया था और उस समयकी परिस्थिति उनके लिए गम्भीर रूपसे उत्तेजक थी। इसके अतिरिक्त जनताका विश्वास है कि इन सैनिक अदालतोंने लोगोंको जो सजाएँ दी है उनमें से अधिकांशको किसी उचित साक्ष्य का बल प्राप्त नहीं है। इसलिए मैं आशा करता हूँ कि सरकार, जो अबतक रंगे हाथों पकड़े जानेवाले राजनीतिक अपराधियोंको भी छोड़ देनेका सत्कार्य करती

  1. दिसम्बर १९१९ की घोषणा।