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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हम वैसा करें, यह एक अलग बात है। लेकिन जहाँ एक प्यालेसे पानी पीने में एकता नहीं है वहाँ उस क्रियाको आगे रखकर उसे एकताका सूचक मानना एकतामें विघ्न डालनेके समान है। मैं तो यह मानता हूँ कि हमने खाने की क्रियाको झूठा महत्त्व देकर बीमारी और भुखमरीको मोल ले लिया है और संयमको मुश्किल बना दिया है। जैसी शौच-क्रिया है ठीक वैसी ही खानेकी क्रिया भी है। दोनों मलिन क्रियाएँ हैं और एकान्तमें ही करने योग्य है। हमें खाने में बहुत रस आता है इसीसे इस विषयका खुले रूपसे उपभोग करते हुए हम शरमको भी छोड़ बैठे है। अनेक मर्यादाशील हिन्दू खानेकी क्रियाको प्रभुका नाम लेकर शरीरयात्राके निमित्त एकान्त में करते हैं। यह बात अनुकरणीय है, मेरी तो ऐसी ही धारणा है। भले ही मेरी यह धारणा दोषपूर्ण हो, मुझे तो केवल यह सिद्ध करना है कि हिन्दू-मुसलमानोंमें एकता बढ़ाने के लिए एक साथ खाने की जरूरत नहीं है। खाने-पीने के प्रश्नको उठाना एकतामें विघ्न डालना है।

अब हम शादी-विवाहके सम्बन्ध विचार करें। अनेक हिन्दू-मुसलमान स्वेच्छासे एक-साथ खायें, यह हिन्दू समाज सहन कर सकता है लेकिन हिन्दू-मुसलमानों में शादी-विवाह तो कहीं दिखाई नहीं देता और यदि इसको प्रोत्साहन दिया जायेगा तो हिन्दू धर्मका लोप हो जायेगा। हिन्दू मुसलमान विवाह करके एक दूसरेके धर्मका पूरी तरह निर्वाह कर सकते है, यह बात मुझे तो असम्भव दीख पड़ती है। धार्मिक भावनासे विहीन व्यक्तिका जीवन निरर्थक है। इस भावनाको शुद्ध रखना हो तो परस्पर एक-दूसरेके बीच विवाहादिका प्रश्न उठ ही नहीं सकता। हिन्दू अथवा मुसलमान अपने धर्मके प्रति उदासीन होकर एकता बनाये रखें तो वह एकता सच्ची एकता नहीं है, हिन्दू-मुसलमानकी एकता नहीं है। और हम तो हिन्दू-मुसलमानकी एकताके अभिलाषी है। उसे प्राप्त करना हो और निरन्तर उसे निभाना हो तो हमें शादी-विवाहकी बातको एकदम खत्म कर देना चाहिए। मेरी मान्यता है कि कट्टर मुसलमानोंका भी यही मत है। मुसलमान हिन्दूका कदापि हिन्दूके रूपमें वरण नहीं कर सकता। ऐसे दम्पतीकी सन्तान किस धर्मका अनुसरण करेगी? एकको दूसरे का धर्म स्वीकार करना ही चाहिए अथवा दोनोंको धर्म-हीन रहना चाहिए अथवा नये सम्प्रदायकी स्थापना करनी चाहिए। इनमें किसी भी दशामें हिन्दू-मुस्लिम एकता नहीं सवती। मेरा स्वप्न तो यह है कि तिलक और कंठीधारी वैष्णव अथवा विभूति तथा रुद्राक्षकी मालासे विभूषित नियमपूर्वक सन्ध्या-स्नानादि करनेवाला हिन्दू और नमाजी तथा परहेज करनेवाला मुसलमान सहोदर होकर रह सकें। प्रभुकी इच्छा होगी तो यह स्वप्न सत्य होकर रहेगा।

कोई सन्देहग्रस्त भाई कहेगा कि खिलाफतके मामले में मदद करनेसे यदि एकतामें वृद्धि होती हो तब तो वकोल और मुवक्किल में भी एकता होनी चाहिए। इसमें मुझेदो दोष दिखाई देते हैं। हिन्दुस्तानके मुवक्किल इतने सीधे हैं कि वकीलको पूरा मेहनताना देने के बाद भी उसकी पूजा करते हैं। जहां वकील मेहनतानेकी आकांक्षा नहीं रखता वहाँ तो वह मुवक्किलको गुलामकी भांति खरीद लेता है। जिन्होंने दादाभाईको[१]

  1. दादाभाई नौरोजी (१८२५-१९१७); भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसके तीन बार अध्यक्ष चुने गये; ब्रिटिश संसद (१८९३) में निर्वाचित होने वाले प्रथम भारतीय सदस्य।