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हिन्दू-मुस्लिम एकता

अभी तो यहाँ मुख्य मुद्देपर ही विचार करूँगा। खिलाफतके मामले में मुसलमान पूर्णतया न्यायपर है, ऐसी मेरी मान्यता है। यदि यह केवल धर्म सम्बन्धी भावनाओंकी बात हो और यदि हमारी बुद्धि उसे स्वीकार न करे तो में यह भी मानता हूँ कि हम ऐसे प्रश्नपर मदद करने के लिए बँधे हुए नहीं हैं। लेकिन खिलाफतके प्रश्नके सम्बन्धमें यदि धर्मको एक ओर रख दिया जाये तो भी वे न्यायपर ही है। प्रेसिडेन्ट विल्सन और मित्रराष्ट्रोंने इस सिद्धान्तको स्वीकार किया था कि युद्ध के समय देशोंकी जो सीमाएँ थीं वे वैसीकी-वैसी रहेंगी और किसीको भी सजा देनेके इरादेसे तनिक भी नुकसान नहीं पहुँचाया जायेगा। मुसलमान उनसे इसी सिद्धान्तका पालन करवाना चाहते हैं। उनका कहना है कि अगस्त १९१४ में टर्कीको जो सत्ता प्राप्त थी वह कायम रहनी चाहिए; अरब और मुसलमानोंके पवित्र स्थानोंपर खलीफाका अधिकार कायम रहना चाहिए। सुलतानकी ईसाई और यहूदी प्रजाके हकोंको सुरक्षित रखे जानेके विषयमें उनसे ऐसा समुचितं आश्वासन ले लिया जाये जिससे उनकी प्रतिष्ठाको धक्का न पहुँचता हो। अरब स्वतन्त्र रह सकते हैं। इन सब मांगोंमें मुझे कोई भी मांग अनुचित नहीं दिखाई देती। इनमें टर्की द्वारा किये गये तथाकथित अत्याचारोंका उत्तर भी आ जाता है। ब्रिटेनके मन्त्रियोंने[१] इस आशयके वचन दिये थे। अब यदि मुसलमानोंको इतना कुछ न मिले तो उनके प्रति भारी अन्याय होगा और उनकी धार्मिक भावनाओंको ठेस पहुँचेगी। इसलिए मैं मानता हूँ कि यदि हम पड़ोसीके प्रति अपने कर्त्तव्यको निभाना चाहते है तो मुसलमानोंकी मदद करना हमारा कर्त्तव्य है।

लेकिन सनातनी हिन्दू मुझसे कहते हैं: "अच्छा हम मदद करेंगे, लेकिन आजकल तो हिन्दू एक प्यालेसे पानी पीते हैं, उनके साथ बैठकर खाते हैं और परस्पर लड़के-लड़कियोंके विवाहादिकी बात भी होने लगी है।" उनका यह भय सही है, लेकिन उसके लिए कोई सबल कारण नहीं है। खिलाफतके मामले में मदद करने के लिए एक प्यालेसे पानी पीने, साथ खाने-पीने अथवा लड़के लड़कीकी शादी करनेकी जरा भी जरूरत नहीं है। हिन्दू नियमपूर्वक अपने धर्मका पालन करते हुए भी जब मुसलमानको अपना भाई जैसा मानेंगे तभी एकता होगी। में अपने बच्चेके जूठे-पात्रको साफ किये बिना इस्तेमाल नहीं करता और न उसे ही अपने जूठे पात्र इस्तेमाल करने देता हूँ। लेकिन इससे अपने बच्चे के प्रति मेरा प्रेम कुछ कम नहीं हो जाता। भाई-बहन [परस्पर] विवाह नहीं करते, लेकिन उनके जैसा निर्मल स्नेह हम कहाँ खोजने जायेंगे? बहुत सारे हिन्दू एक ही गोत्रमें विवाह नहीं करते; लेकिन इससे उनकी एकतामें कोई कमी नहीं आ जाती। सच बात तो यह है कि यदि हम एकता बनाये रखने के लिए खान-पान और बेटा-बेटीके आदान-प्रदानको जरूरी समझते हैं तो हिन्दू और मुसलमानोंके बीच एकता हो ही नहीं सकती। इसीसे जब-जब में यह सुनता हूँ कि हिन्दू और मुसलमानने एक ही प्यालेसे पानी पिया है, उन्होंने एक ही थालीमें भोजन किया है, तब-तब मुझे दुःख होता है। क्योंकि ऐसी बातें सुनकर भी एक सनातनी हिन्दूका मन दुःखी हो जाता है। उन्हें दुःखी करनेका कारण हो और

  1. श्री एविय और श्रीलोपड जोर्ज।
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