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पंजाबकी चिट्ठी-१३

इस दिशामें प्रयत्न कर सकता है। यदि हर कोई अपनी स्वच्छताका स्वयं ही पूरा खयाल रखे तो काशी विश्वनाथ मन्दिर अपने-आप हम जितना चाहते हैं उतना--स्वच्छ हो जायेगा।

विश्वविद्यालयके विद्यार्थी

पंडितजी द्वारा विश्वविद्यालयके विद्यार्थियोंसे दो शब्द कहने की आज्ञा पानेपर मैंने काशीसे रवाना होनेके दिन सबेरे साढ़े सात बजे विद्यार्थियोंके सम्मुख विद्यार्थी-जीवन सम्बन्धी अपने विचारोंको व्यक्त[१] किया। विद्यार्थी जीवन संन्यासकी अवस्थाके समान है इसलिए वह अवस्था पवित्र और ब्रह्मचारीकी होनी चाहिए। आज दो सभ्यताएँ विद्यार्थियोंका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए परस्पर होड़ कर रही हैं--प्राचीन और अर्वाचीन। प्राचीन सभ्यता संयम-प्रधान है। प्राचीन सभ्यता हमें बताती है कि मनुष्य ज्ञानपूर्वक अपनी आवश्यकताओंको जितना कम करता जाता है वह उतना आगे बढ़ता है। आधुनिक सभ्यता हमें यह सिखाती है, अपनी आवश्यकताओंको बढ़ाकर मनुष्य प्रगति कर सकता है। संयम और स्वच्छन्दतामें उतना ही भेद है जितना धर्म और अधर्म में है। संयममें बाह्य प्रवृत्तिको आन्तरिक प्रवृत्तिकी अपेक्षा गौण पद प्रदान किया गया है। [आज] संयमशील प्राचीन सभ्यताके बदले स्वच्छन्दतामय आधुनिक सभ्यताको अपनानेका भय उपस्थित हुआ है। इस भयको दूर करने में विद्यार्थी बहुत सहायता कर सकते है। विश्वविद्यालयके विद्यार्थियोंकी परीक्षा उनके ज्ञानसे नहीं बल्कि उनके धर्माचरणके आधारपर होगी। इस विश्वविद्यालय में धर्मकी शिक्षा और आचरणको प्रधानपद प्रदान किया जाना चाहिए। इसमें विद्यार्थियोंकी पूरी मदद होनी चाहिए। पंडितजी स्वयं धर्मका आचरण करने वाले व्यक्ति है। उन्होंने एक धर्मात्मा पुरुषको अर्थात् आनन्दशंकरभाईको विश्वविद्यालय में लाकर विद्यार्थियोंको अनुकूल अवसर दिया है। इस अवसरका लाभ उठाकर विद्यार्थी अपनी विद्याको धर्मसे शोभान्वित करें, ऐसी मेरी कामना है। इस तरहके विचारोंको मैंने प्रातःकाल विद्यार्थियों के सम्मुख रखा। इन विचारोंको में अनेक बार भिन्न-भिन्न रूपों में अनेक स्थलोंपर व्यक्त कर चुका हूँ। और एक बार फिर शुभ अवसर मिलनेपर जिन्हें मैंने उस दिन काशी विश्वविद्यालयके विद्यार्थियों के सामने पेश किया उन्हींका यह सार 'नवजीवन' के पाठकोंके सामने उनके मनन करने के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। मेरा विश्वास है कि हम अपने धर्मका विचार किये बिना राजनीतिक सुधारोंका लाभ नहीं उठा सकते। धर्मकी स्थापना इन सुधारोंसे नहीं हो सकती बल्कि धर्मके द्वारा ही इन सुधारोंकी खामियोंको दूर किया जा सकेगा। काशीमें गुजराती काशीमें गुजराती काफी बड़ी संख्यामें हैं, इस बातकी मुझे आजतक खबर न थी। आनन्दशंकरभाईने मुझे उनसे मिलनेका अवसर प्रदान किया था। पंडितजी भी उपस्थित थे। गुजराती भाइयोंने उसी अवसरपर पंडितजीको मानपत्र देनेका विवेकपूर्ण

  1. देखिए "भाषण: विद्यार्थियों की सभामें", २१-२-१९२०।