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४५. पंजाबकी चिट्ठी-१३

पंजाब छोड़ा

यह पत्र तो में प्रार्थनोपरान्त आश्रममें बैठे हुए लिख रहा हूँ। आश्रममें लिखी हुई चिठीको पंजाबकी चिट्ठी कैसे कहा जा सकता है? इसे पंजाबकी चिट्ठी कहनेकी धृष्टता कर रहा हूँ, क्योंकि मेरी आत्मा अभी भी पंजाबमें ही रमी हुई है। पंजाबियोंकी सरलता, सादापन, भोलापन, उदारता और उनके दुःख मैं भूल नहीं सकता। उनके दुःखमें थोड़ा-सा भाग लेकर में पवित्र बन गया हूँ। तुलसीदासने जिस दयाधर्मका--प्रेमधर्मका--बखान किया है, उसकी महिमाको मैं अब अधिक समझ सकता हूँ और यदि मुझे अवकाश मिला तो किसी समय धर्म-पालनके ठोस उदाहरणोंको में जनताके सामने प्रस्तुत करूँगा।

लेकिन मेरा हृदय पंजाबमें रमा हुआ है, सिर्फ इस कारणसे ही मैं इसे पंजाबकी चिट्ठी नहीं कह सकता, वरन् इस चिट्ठी में मुख्य रूपसे पंजाबकी ही बात होगी, इसीसे उससे बाहर लिखी जानेपर भी इसे पंजाबकी चिट्ठी कहा जा सकता है।

काशी-यात्रा

गत सप्ताह मैंने पंजाबके गुजरात जिलेकी यात्राका वर्णन किया था। इस यात्राके बाद समितिकी रिपोर्ट तैयार करने के लिए कोई यात्रा करनी बाकी नहीं रह गई थी; इसके सिवा समितिकी रिपोर्टको पूरा करनेका समय भी आ गया था। अत: यह प्रश्न उठा कि इस रिपोर्टको पढ़ने के लिए [कांग्रेसकी जाँच-समितिके] सब सदस्य[१] किस स्थानपर एकत्र हों। पंडित मोतीलाल नेहरू, श्री चित्तरंजन दास और पंडित मालवीयजीके लिए काशी उपयुक्त स्थान था, इसलिए यह निश्चय किया गया कि सब लोग काशी जायें। श्री जयकर लाहौर आ चुके थे; वे, श्री सन्तानम् और डाक्टर परसराम तथा लाला हरकिशनलाल १५ तारीखको लाहौरसे काशीके लिए रवाना हो गये। रास्तेमें लाला गिरधरलाल उन्हें अमृतसर स्टेशनपर मिले। मेरी सार-सँभाल रखनेके लिए डाक्टर जीवराज मेहता[२] भी हमारे साथ हो लिए थे। हम १६ तारीखको काशीजी पहुँच गये। स्टेशनपर महामना पंडित मालवीयजी तथा हमारे धर्मपरायण और विद्वान् भाई आनन्दशंकर ध्रुवके[३] दर्शन करके में कृतार्थ हो गया।

रिपोर्ट लिखनेका कार्य-भार मुझे सौंपा गया था। उसे में लाहौरमें पूरा न कर सका था। इसलिए में तो सारा समय उसे पूरा करने में व्यतीत करता था और दूसरे सदस्य उसे पढ़ने में। उन्होंने मेरी रक्षा की। मेरे प्रति अनन्य प्रेम-भाव प्रगट करके

  1. देखिए "पत्र: मोतीलाल नेहरूको", २०-२-१९२०।
  2. एक प्रसिद्ध चिकित्सक, गुजरातके प्रथम मुख्यमन्त्री; भारतीय उच्चायुक्त, लन्दन।
  3. उप-कुलपति, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय।